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" उस समय शासन देवताने उन् ( रतिसारको ) मु निवेश धारण कराया और सुवर्णकमलके आसनपर पघराया। तदनंतर सभी सुगसुर फूल बरसाते हुए उन्हें प्रणाम करने लगे । यह अद्भुत चरित्र देख, राजाके अंतःपुरके सभी मनुष्य चकित होगए और स्त्रियां " हे नाथ यह क्या मामला है ? " यह पूछती हुई, हाथ जोडे, उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी।"
श्वेतांबर सम्प्रदायका यह प्तिद्धांत भी बहुत निर्वल भागमप्रमाण और युक्तियोंसे शून्य है । देखिये जिस प्रकरणरत्नाकर तीसरे भागमें गृहस्थ अवस्थासे मुक्तिका विधान है उसो प्रकरणरत्नाकर चौथे भागके ७३ वें पृष्ठपर यह उल्लेख है कि
तिरिय जा अच्चुओ सट्टा ।। १५२ ॥ ___अर्थात् -- श्रावक यानी जैन गृहस्थ अधिकसे अधिक अच्युत स्वर्गतक जा सकता है। उससे आगे नहीं।
__ अच्युत स्वर्गसे ऊपर जानेके लिये समस्त घरबार परिग्रह छोडकर मुनि होनेकी आवश्यकता है। जब कि ऐमा स्पष्ट सिद्धांत विद्यमान है फिर यह किस मुखसे कहा जा सकता कि विना परिग्रहका त्याग किये और विना साधु पदवी धारण किये मुक्ति मिल जावे । मुक्ति ऐसा कोई कारखाना नहीं जिसमें चाहे जो कोई पहुंचकर भर्ती हो जावे। न वह कोई ऐसा खेल खेलनेका मैदान है जिसमें कि विना कुछ संयम पालन किये, विना कुछ बारम्भ परिग्रह त्याग किये चाहे जो कोई पहुंच जावे ।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी यह बात स्वीकार करता है कि पूर्ण वीत. राग हो जानेपर ही मुक्ति प्राप्त होती है । जब तक जीव में लेशमात्र भी राग द्वेष आदि मोह भाव है तब तक वीतरागताकी पूर्णता नहीं है । मोहका अभाव अन्तरंग बहिरंग परिग्रहका त्याग करनेपर होता है। जब तक जीवके पास अन्तरंग या बाहरंग परिग्रह विद्यामान रहेगा तब तक मोहभाव नहीं हट सकता । इसी कारण मुक्तिकी साधना करनेके लिये समस्तपारग्रहरहित, परम वीतराग जिनेन्द्र देवको उद्देश करके समस्त पहिरंग परिग्रह छोडकर साधुदीक्षा ग्रहण की जाती है।
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