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भी बोध नहीं था। आश्चर्य इतना है कि मुनि आत्मानंद भी इस बुद्धिशून्य भुमरी कथाको सत्य मानकर प्रमाणरूपमें लिख गये ।
अब जरा कस्पित कथापर भी ध्यान दीजिये । शिवभूतिको अपनी माताकी फटकार मिलने पर वैराग्य हो गया । वह रात्रि के समय ही उपाश्रयमें साधुओं के पास पहुंचा और अपने साधु बननकी प्रार्थना की। साधुओंने उसको दीक्षा देनेका निषेध कर दिया । ( रात्रिको महाव्रती साधु बोलते नहीं हैं फिर उसको निषेध कैसे किया ? ) तब विभूति अपने आप केशलोच करके साधु हो गया। जब वह केशलोच करके साधु बन गया तब उन आचार्योंने भी उसे दीक्षा दे दी। फिर आचार्य वहां से चले गये । राजाने उस शिवभूति साधुको रत्नकंबल दिया उसने ले लिया । कुछ समय पीछे जब आचार्योंने फिर उस नगर में आकर शिवभूतिके पास रत्नकंबल देखा तो उन्होंने पहले तो उस रत्नकंचलको ग्रहण न करनेका उपदेश दिया । जब शिवभूतिने उनका कहना न माना तो आचार्योंने गुप्त रूपसे उसका कंबल लेलिया और उसके टुकड़े करके रजोहरण [ओधा - पोछी] के निशीथियें बना दिये । फिर किसी समय उन आचायौने उत्कृष्ट जिनकरूपी साधुओंका स्वरूप बतलाया तब शिवभूति साधु आचार्योंके निषेध करने पर भी समस्त वस्त्र, वर्तन, बिस्तर, कंबल, लाठी आदि परिग्रहको छोडकर नग्न दिगम्बर मुनि ( उत्कृष्ट जिनकल्पी) हो गया ।
ariपर प्रथम तो यह बात विचार करनेकी है कि रात के समय साधु बोलते नहीं । ध्यान, सामायिक आदिमें लगे रहते हैं । वचनगुप्ति [ मौन ] धारण करते हैं फिर उन्होंने शिवभृतिको साधुदीक्षा देनेका निषेध कैसे किया ? यदि सचमुच निषेध किया ही तो उन श्वेतांबरी आचार्योको सिद्धांत प्रतिकूल स्वच्छन्द विहारी मानना चाहिये । दूसरे - शिवभूतिको साधुकी दीक्षा देनेके लिये उन आचार्योंने प्रथम इनकार (निषेध) क्यों किया ? और थोडी देर पीछे ही उसको साधुदीक्षा क्यों दे दी ?
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