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किन्तु श्वेताम्बरी सज्जनोंकी ऐसी धारणा बहुत भूलभरी हुई है। क्योंकि प्रथम तो इन प्रतिमाओं में से एक-दोके सिवाय प्रायः सब ही नग्न हैं। उनके शरीरपर वसका चिन्ह रंचमात्र भी नहीं है । इस कारण दिगम्बरीव मूर्तिविधानके अनुसार वे दिगम्बरी ही हैं। यदि वे श्वेताम्बरी होती तो उनपर कम से कम चोलपट्ट (कंदोरा-हंगोट) का चिन्ह तो अवश्य होता। किन्तु उनपर वह बिलकुल भी नहीं है। इस कारण नियमानुसार वे प्रतिमाएं दिगम्बरी
___ यदि प्रतिमाओं परके लेखमें 'कोट्टिक गण ' शब्द लिखा हुमा होनेके कारण उन प्रतिमाओंको श्वेताम्बरीय कहनेका साहस किया जाये तो भी गलत है क्योंकि प्रतिमाओंके निर्माण समयमें कोट्टिकगण श्वेताम्बरीय होता तो प्रतिमाओंकी आकृति भी अन्य श्वेताम्बरीय मूर्तियों के अनुसार होती । श्वेताम्बरी लोगोंको या तो अपने शास्त्रों में यह दिखलाना चाहिये कि अरहन्त प्रतिमा का आकार नम रूपमें होता है, वस्त्र का लेशमात्र भी उसके ऊपर नहीं होता।तो तदनुसार बस मुकुट कुंडल भादि चिन्हों वाली जो मूर्तियां आज श्वेतांबरोके यहां प्रचलित हैं वे श्वेताम्बरीय नहीं ठहरती हैं। अथवा वससहित मूर्तियोका निर्माण ही श्वेतांवर सम्प्रदायके शास्त्रानुसार होता है ऐसा यदि श्वेतांवर कहें तो इन मासे निकली हुई नग्न मूर्तियोंको श्वेतांबरीय मूर्ति माननेकी भूल हृदयसे निकाल देनी चाहिये। नन मूर्ति और वह श्वेतांबरीय हो ऐसा परस्पर विरुद्ध कथन हास्यजनक भी है।
दूसरे प्रतिमाओंपर जो संवत् उल्लिखित हैं उन संवतोंसे वे मथुरा की प्रतिमाएं केवल १७०० सत्रह सौ वर्ष प्राचीन ही सिद्ध होती हैं उससे अधिक नहीं, जब कि इससे पहलेही जैन सम्प्रदायके दिगम्बर, श्वेताम्बर रूपमें दो विभाग हो चुके थे। प्रतिमाओंपर जो संवत है वह प्रायः ( कुशान ) शक संवत् है क्योंकि जिन राजाओंका वहां उल्लेख है उनका समय अन्य आधारोंसे भी बह ही प्रमाणित होता है । शक संवत् विक्रम संवतसे १३७ वर्ष पीछे तथा वीर संवत्से ६०० छह सौ
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