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वर्ष पीछे प्रचलित हुआ है। वसुदेव संवत् उससे भी ७७ वर्ष पीछे प्रचलित हुआ है। इस कारण उरिलखित संवतोंसे ये प्रतिमाएं श्वेतांवर सम्प्रदायकी, दिगम्बर सम्प्रदायसे प्राचीनता सिद्ध करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं। क्योंकि इनसे भी सैकडों वर्ष पुराने श्रवणबेलगुल व खंडगिरि शिलालेख दिगम्बर सम्प्रदायका पुरातनत्व सिद्ध कर रहे हैं।
भूगर्भसे प्राप्त प्राचीन दिगम्बर जैन मूर्तियां.
यों तो अभी जहां कहीं भी प्राचीन जैन प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं सब ही दिगम्बर जैनमुर्तिया हैं। उनपर श्वेताम्बरीय प्रतिमाओं सरीखा लंगोटका चिन्ह किसीपर भी नहीं खुदा है। किन्तु अभी ७-८ वर्ष पहले भरतपुर राज्यान्तर्गत बयाना तहसीलके नारोली ग्राममें एक स्थानपर खुदाई हुई थी उसमें संवत् १३ की प्रतिष्ठित दिगम्बर जैन अन्ति प्रतिमाएं उपलब्ध हुई थी।
प्रतिमाएं १० थीं जिनमेंसे एक प्रतिमाका चिन्ह मालूम नहीं हुआ शेष ९ प्रतिबिंब श्री ऋषभनाथजी, श्री संभवनाथजी, श्री सुपार्श्वनाथजी, श्री चन्द्रप्रभजी, श्री श्रेयांसनाथजी, श्री शांतिनाथजी, श्री नेमिनाथजी, श्री पार्श्वनाथजी और श्री महावीरजी के हैं। ये सभी प्रतिबिंब भाषाढ सदी १ स. १३ में जयपुर नगरके प्रतिष्ठित हैं। ये समस्त प्रतिबिंध इस समय बयानाके मंदिरजीमें विराजमान हैं।
उसी नारोली ग्राममें भरतपुर राज्यसे स्वीकारता लेकर गत वर्ष (बीर सं. २५५४ ) में फिर खुदाई हुई तो १४ प्रतिमाएं फिर निकली जिनमें एक श्री चंद्रप्रभकी, चार श्री पार्श्वनाथजीकी, पाठ श्री महावीरस्वामीकी और एक श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरको मस्तकपर उठाये हुए पद्मावती देवीकी मूर्ति है।
इस प्रकार ये प्रतिबिम्ब पौने दो हजार वर्ष पुराने हैं।
इस कारण इन पूर्वोक्त प्रमाणोंसे अच्छी तरह प्रमाणित होता है कि दिगम्बर सम्प्रदायका रूप जैनधर्मके प्रारम्भ समयसे चला आ रहा है और श्वेताम्बर सम्प्रदायका उदयकाल श्री भद्रबाहु श्रुतकेवलोके पीछे १२ वर्षके दुष्कालका निमित्त पाकर केवल दो हजार वर्ष से हुआ है।
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