Book Title: Shwetambar Mat Samiksha
Author(s): Ajitkumar Shastri
Publisher: Bansidhar Pandit

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Page 267
________________ 1 २५३ ' " कंथाकौपीनोत्तरासंगादीनां त्यागिनो यथाजातरूपधरा निग्रंथा निष्परिग्रहाः । " इति संवर्तश्रुतिः । अर्थात्- कंथा, (ठंडक दूर करनेका कपडा ) कौपीन [ लंगोट ] उत्तरासंग [ चादर ] आदि वस्त्रोंके त्यागी, उत्पन्न हुए बच्चे के समान नमरूप धारण करनेवाले, समस्त परिग्रहसे रहित निग्रंथ साधु होते हैं । सायणाचार्यका यह लेख भी विक्रम संवतसे बहुत पहले का है। इस लेखसे भी दिगम्बर मतकी प्राचीनता सिद्ध होती है क्योंकि इस वाक्य में साधुका जो स्वरूप बतलाया है वह दिगम्बर मुनिका ही नम, वस्त्र, परिग्रह रहित वेश बतलाया गया है । इस प्रकार चाहे जिस प्राचीन ग्रंथका अवलोकन किया जाय उसमें यदि जैन साधुका उल्लेख आया होगा तो उसका स्वरूप नग्न दिगम्बर वेशमें ही बतलाया गया होगा । श्वेतांबर, पीतांबर ( सफेद पीले कपडे पहनने वाले ) रूपमें कहीं भी जैन साधुका उल्लेख नहीं मिलता है । इस कारण सिद्ध होता है कि श्वेतांबर मत भद्रबाहु स्वामी के स्वर्गवास हुए पीछे दुर्मिक्षके कारण भ्रष्ट होनेसे प्रचलित हुआ है और उसका प्रचार विक्रम संवतकी दूसरी शताब्दीसे चल पडा है । सम्राट् चन्द्रगुप्तके पौत्र महाराज विन्दुसारके पुत्र सम्राट् अशोक जो कि विक्रम संवत्से २०० वर्ष पहले हुआ है उसने राजसिंहासन पर बैठने के बाद १३ वर्षतक जैनधर्मका परिपालन किया था ऐसा उसके कई शिलालेखों से सिद्ध होता है। उसके पीछे उसने बौद्धधर्म स्वीकार किया था । बौद्धधर्म स्वीकार करनेके पीछे -- अशोक अवादान नामक बौद्ध ग्रंथमें यो लिखा है कि“ राजा अशोकने नग्न साधुओंको पौंड्रबर्द्धन में इसलिये मरवा - डाला कि उन्होंने बौद्धोंकी पूजामें झगडा किया था । "" बौद्धशास्त्र के इस लेख से भी यह सिद्ध होता है कि विक्रम संवत से पहले दिगम्बर जैन साधुओंका ही विहार भारत वर्ष में था । सम्राट अशोकके पीछे ईसवी संवत्से १५७ वर्ष पहले ( पुरातत्ववेत्ता श्री केशवलाल हर्चेदराय ध्रुवके मतानुसार ईसवी संगतसे २०० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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