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इस शिलालेखस सिद्ध होता है कि श्री भद्रबाहु स्वामीके शिष्य चन्द्रगुप्त मुनिदीक्षासे दीक्षित होकर चन्द्रगिरि पर्वतपर श्री भद्रबाहुस्वामौके साथ रहे थे।
शिलालेख नं. ३ श्री भद्रस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः । श्रुतकेवलिनाथेषु चरमः परमो मुनिः।
चन्द्रप्रकाशोज्वलसान्द्रकीर्तिः । श्रीचन्द्रगुप्तोजनि तस्य शिष्यः। यस्य प्रभावाद्वनदेवताभि
राराधितः स्वस्य गणो मुनीनाम् ॥ भावार्थ:-सर्व प्रकारसे कल्याणकारक, श्रुतकेवलियोंमें अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु परम मुनि हुए। उनके शिष्य चन्द्रगुप्त हुए जिनका यश चन्द्रसमान उज्वल है और जिनके प्रभावसे वन देवताने मुनियोंकी माराधना की थी।
इस शिलालेखसे यह बात प्रमाणित होती है कि सम्राट चन्द्रगुप्त जिन भद्रबाहु मुनीश्वर के शिष्य थे वे श्री भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली ही थे, दुसरे भद्रबाहु नहीं थे।
शिलालेख नं. ४ वर्ण्यः कथन्तु महिमा भण भद्रबाहोः मोहोरुमल्लमदमर्दनवृत्तवाहोः । यच्छिष्यताप्तसुकृतेन च चन्द्रगुप्तः सुश्रूषते स्म सुचिरं वनदेवताभिः ।
अर्थ-भला कहो तो सही कि मोहरूपी महामलके मदको चूर्ण करनेवाले श्री भद्रबाहु स्वामीकी महिमा कौन कह सकता है जिन के शिष्यत्वके पुण्यप्रभावसे वनदेताओंने चन्द्रगुप्तकी बहुत दिनोंतक सेवा की।
शिलालेख नं. ५ तदन्वये शुद्धमतिप्रतीते समग्रशीलामलरत्नजाले। अभूयतीन्द्रो भुवि भद्रबाहुः पयः पयोधाविव पूर्णचन्द्रः ॥
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