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एयेरप्पसरप्पाने जिनेन्द्र भवनके लिये श्री कुमारसेन भट्टारकको निम्नलिखित दान दिया है।
एक ग्राम स्वच्छ चांवल बेगार घी इन दान दी हुई वस्तुओंके अपहरण करने वालों को हिंसा और पंचमहापापका पातक लगेगा।
केवल विष ही विष नहीं होता है किन्तु देवधनको भी घोर विष समझना चाहिये क्योंकि विष तो भक्षण करनेवाले केवल एक प्राणीको मारता है किन्तु देवधन सारे परिवारका नाश कर देता है।
इन शिलालेखोंसे भी हमारी पूर्वोक्त बात पुष्ट हो गई । इस कारण तात्पर्य यह निकला कि अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामीके समय मालवा आदि उत्तर देशों में बारह वर्षका दुर्भिक्ष अवश्य पडा था। उसके प्रारम्भ होनेसे पहले ही भद्रबाहु स्वामी अपने मुनिसंघ सहित दक्षिण देशको रवाना हो गये थे । वहां कटवा पर्वतके समीप निमित्तज्ञानसे उनको अपना मृत्युसमय निकट मालुम हुआ इसलिये अपने पास केवल नवदीक्षित चन्द्रगुप्त अपरनाम प्रभाचन्द्रको अपने पास रखकर कटवप्र पर्वतपर समाधिमरण धारण कर ठहर गये और समस्त मुनिसंघको चोलपांख्य देशकी तरफ भेज दिया।
शास्त्रीय-प्रमाण. अब हम इस विषयमें पुरातन ग्रंथोंका प्रमाण उपस्थित करते हैं जिससे कि पाठक महानुभावोंको उक्त कथाकी सत्यता और भी दृढरूपसे मालूम हो जावे।
राजबलीकथा-नामक कर्नाटक भाषामें एक अच्छा प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो कि देवचन्द्रने संवत् १८०० में लिखा है । उस ग्रंथमें ग्रंथलेखकने स्पष्ट लिखा है कि
" सम्राट चन्द्रगुप्त अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुका शिष्य था । संसारसे विरक्त होकर भद्रबाहुसे मुनिव्रतकी दीक्षा लेकर मुनि हुआ था। मुनिदीक्षा देते समय श्री भद्रबाहुस्वामीने उसका नाम 'प्रभाचन्द्र' रक्खा था। बारह वर्षके दुष्कालके समय वह भद्रबाहुके साथ दक्षिण देश आया था और वहांपर भद्रबाहुके समाधिमरण करनेके समय उनकी
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