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भी अवश्य स्वीकार कर लीजिये । अन्यथा काम चलना बडा कठिन है । साधुके नग्न शरीरके कारण ही यशोभद्रकी सेठानीको भयभीत होकर गर्भपात हो गया । जिस समय दुर्भिक्ष समाप्त हो जाय उस समय आप यह सब उपाधि त्याग कर शुद्ध मुनिवेष धारण कर लेना ।
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आचार्योंने यह विचार किया कि दुर्भिक्षका अंत होनेपर हमारे इन दोषोंका भी अंत हो जायगा । हम प्रायश्चित्त लेकर पुनः शुद्ध हो जावेंगे । यदि हम इस समय कपडे न पहनें तो हमारा रहना बहुत कठिन है | यदि हम तथा हमारे संघके मुनि न रहे तो जैनधर्मके प्रचार में बहुत बाधा ब्यावेगी । अतः इस समय वस्त्र धारण करना भी आवश्यक है । यह विचार कर उन्होंने श्रावककी बात स्वीकार कर ली और मुनियोंको आज्ञा दी कि प्रत्येक मुनि चादर तथा कंवल पहने ओढे । आचार्योंकी आज्ञानुसार तबसे प्रत्येक साधु कपडे भी पहनने ओढने लगे ।
इस प्रकार एक एक आपत्तिको दूर करने के लिये वस्त्र, पात्र, लाठी रखना, श्रावकोंके घर से भोजन लाकर अपने स्थान पर खाना, रात्रिमें आना जाना, नगर में रहना इत्यादि अनेक अनुचित बातें जो कि मुनिधर्म के प्रतिकूल की इन रामल्य, स्थूलभद्र, स्थूलाचार्यने तथा उनके संघ रहनेवाले साधुओंने स्वीकार करलीं ।
दुर्भिक्षने बारह वर्ष के बिकट बहुत बडे चक्करको काटकर अपनी समाप्ति की । इस चक्कर में कितने मनुष्य, पशु, पक्षी किस बुरी दशासे छटपटाते हुए प्राण छोड गये इसको सर्वज्ञदेव के सिवाय और कोई नहीं जानता ।
बारह वर्षतक चोल पांख्य [दक्षिण-कर्णाटक ] देशोंमे विहार करते हुए विशाखाचार्य उत्तरीय भारतवर्ष में दुर्भिक्षका अंत समझकर अपने समस्त मुनिसंघसहित मालव देशकी ओर चल पडे । मार्ग में जहां श्रवण बेलगुलके समीप कटवप्र पर्वतपर भद्रबाहु स्वामी और उनके अनन्य वक्त प्रभाचन्द्र मुनिको ( पूर्वनाम - चन्द्रगुप्त ) छोडा था, आकर ठहरे यहाँपर प्रभाचन्द्र मुनिसे भद्रबाहु स्वामीके समाधि
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