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इस प्रकारकी कार्यवाही ३-४ शताब्दियोंतक चलती रही। उसके पीछे विक्रम संवत १३६ में गुजरातके वल्लभीपुर नगरमें उन्होंने एकत्र होकर अपना संगठन किया। वहांपर उन्होंने स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति अन्यलिंगमुक्ति, सग्रंथमुक्ति, महावीरस्वामी का गर्भपरिवर्तन मादि कल्पित सिद्धांत स्थिर किये । बे साधु सफेद चादर ओढते थे इस कारण उन्होंने अपने संघका नाम 'श्वेताम्बर' यानी सफेद कपडेवाला रक्खा । और जो साधु विशाखाचार्यकी शिष्य परम्परामें नग्न निग्रंथ वेशधारी थे उनका नाम ' दिगम्बर ' ( दिक् अम्बर ) रक्खा । जिसका कि अर्थ दिशारूपी वस्त्र धारण करनेवाले अर्थात् नग्न है । इसी दिनसे एक जैन सम्प्रदायके दिगम्बर, श्वेताम्बर ऐसे दो विभाग हो गये । इस सम्प्रदाय भेद हो जानेके बहुत दिन पीछे अनुमानतः वीर संवत ९०० के समय बल्लभीपुर नगरमें देवगिण नामक श्वेताम्बर आचार्यने आचारांगसूत्र आदि अनेक ग्रंथोंकी प्राकृत भाषामें रचना की । ग्रंथोंकी इस प्राकृत भाषाका नाम उन्होंने अर्द्धमागधी भाषा रक्खा । इन ग्रंथों में उन्होंने अपने अनेक कल्पित सिद्धान्त तथा शिथिलाचार पोषक सिद्धान्त रख दिये जिनका कुछ उल्लेख हमने पीछे कर दिया है।
स्थानकवासी संप्रदाय. इस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय जैन समाजके भीतर भद्रबाहु वामीके पीछे बारह वर्षके दुर्भिक्षका निमित्त पाकर एक नवीन भ्रष्ट रूप लेकर उठ खडा हुआ। उस समयकी बिकट परिस्थितिका सामना करते हुए श्वेताम्बर संधके मूल जन्मदाता साधुओंने जो वस्त्र, पात्र, लाठी आदि परिग्रह पदार्थ स्वीकार किये थे उन्हींकी प्रवृति माज तक बराबर चली आ रही है । विशेषता केवल इतनी है कि अब श्वेताम्बर साधुओं में और भी अधिक शिथिलता आ गई है। तदनुसार उनका परिग्रह मी पहलेसे अधिक बढ गया है । आजसे ३००-४०० वर्ष पहले श्वेताम्बर संघमें से निकले हुए स्थानकवासी (ढूंढिया) साधु
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