Book Title: Shwetambar Mat Samiksha
Author(s): Ajitkumar Shastri
Publisher: Bansidhar Pandit

View full book text
Previous | Next

Page 239
________________ । २३१ । दीक्षा देकर चारित्रप्रदान भी कीजिये । मैं सांसारिक विषयभोगोंसे भयभीत हूं । मुझे विषयभोग विषभोजन के समान और कुटुम्ब परिजन विषभरे नागके समान दृष्टिगोचर होते हैं । इनसे आप मेरी रक्षा कीजिये। श्री गोवर्द्धन स्वामीने प्रसन्न मुखसे आशीर्वाद देते हुए कहा वत्स! तुमने बहुत अच्छा विचार किया है । तत्वज्ञानका अभिप्राय ही यह है कि जिस पदार्थको अपना स्वार्थनाशक समझे उसका साथ छोडनेमें तनक भी देर न करे । तपस्या करके आत्माको शुद्ध बनाना यह ही मनुष्यका सच्चा स्वार्थ है । इस परमार्थको सिद्ध करने के लिये जो तुमने निश्चय किया है वह बहुत अच्छा है । ऐसा कह कर गोवर्धनस्वामीने भद्रबाहुको विधिपूर्वक असंयम, परिग्रह का त्याग कराकर साधुदीक्षा दी। भद्रबाहु दीशित होकर साधुचर्या पालन करते हुए अपना जीवन सफल समझने लगे। जैसे रत्न स्वयं सुंदर पदार्थ है किन्तु सुवर्णमें जडकर उसकी कान्ति और भी अधिक मनोमोहिनी हो जाती है। इसी प्रकार भद्रबाहुस्वामीका अगाध ज्ञान स्वयं प्रकाशमान गुण था। किन्तु वह मुनिचारित्रके संयोगसे और भी अधिक सुंदर दीखने लगा । भद्रबाहु स्वामीको सर्वगुणसम्पन्न देखकर गोवर्द्धनस्वामीने उन्हें एकदिन शुभ मुहूर्तमें मुनिसंघका आचार्य बना दिया. आचार्य बनकर भद्रबाहु मुनिसंघकी रक्षा करने लगे। कुछ दिनों पीछे गोवर्धनाचार्यने अपना मृत्युसमय निकट आया जानकर चार आराधनाओंकी आराधना कर समाधि धारण की । और अंतिम समय समस्त आहार पानका त्याग करके इस मानव शरीरको छोडकर स्वर्गों में दिव्य शरीर धारण किया । श्री गोवर्द्धन आचार्यके स्वर्गारोहण करने के पीछे भद्रबाहु आचार्य अपने मुनिसंघ सहित देशान्तरोंमें विहार करने लगे। विहार करते हुए भद्रवाहु स्वामी मालव देशके उज्जयिनी ( उज्जैन ) नगरके निकट उद्यानमें आकर ठहरे। उस समय भारतवर्षका एकच्छत्र राज्य करने वाला सम्राट चन्द्रगुप्त उज्जयिनीमें ही निवास करता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288