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दीक्षा देकर चारित्रप्रदान भी कीजिये । मैं सांसारिक विषयभोगोंसे भयभीत हूं । मुझे विषयभोग विषभोजन के समान और कुटुम्ब परिजन विषभरे नागके समान दृष्टिगोचर होते हैं । इनसे आप मेरी रक्षा कीजिये।
श्री गोवर्द्धन स्वामीने प्रसन्न मुखसे आशीर्वाद देते हुए कहा वत्स! तुमने बहुत अच्छा विचार किया है । तत्वज्ञानका अभिप्राय ही यह है कि जिस पदार्थको अपना स्वार्थनाशक समझे उसका साथ छोडनेमें तनक भी देर न करे । तपस्या करके आत्माको शुद्ध बनाना यह ही मनुष्यका सच्चा स्वार्थ है । इस परमार्थको सिद्ध करने के लिये जो तुमने निश्चय किया है वह बहुत अच्छा है ।
ऐसा कह कर गोवर्धनस्वामीने भद्रबाहुको विधिपूर्वक असंयम, परिग्रह का त्याग कराकर साधुदीक्षा दी। भद्रबाहु दीशित होकर साधुचर्या पालन करते हुए अपना जीवन सफल समझने लगे।
जैसे रत्न स्वयं सुंदर पदार्थ है किन्तु सुवर्णमें जडकर उसकी कान्ति और भी अधिक मनोमोहिनी हो जाती है। इसी प्रकार भद्रबाहुस्वामीका अगाध ज्ञान स्वयं प्रकाशमान गुण था। किन्तु वह मुनिचारित्रके संयोगसे और भी अधिक सुंदर दीखने लगा । भद्रबाहु स्वामीको सर्वगुणसम्पन्न देखकर गोवर्द्धनस्वामीने उन्हें एकदिन शुभ मुहूर्तमें मुनिसंघका आचार्य बना दिया. आचार्य बनकर भद्रबाहु मुनिसंघकी रक्षा करने लगे।
कुछ दिनों पीछे गोवर्धनाचार्यने अपना मृत्युसमय निकट आया जानकर चार आराधनाओंकी आराधना कर समाधि धारण की । और अंतिम समय समस्त आहार पानका त्याग करके इस मानव शरीरको छोडकर स्वर्गों में दिव्य शरीर धारण किया ।
श्री गोवर्द्धन आचार्यके स्वर्गारोहण करने के पीछे भद्रबाहु आचार्य अपने मुनिसंघ सहित देशान्तरोंमें विहार करने लगे। विहार करते हुए भद्रवाहु स्वामी मालव देशके उज्जयिनी ( उज्जैन ) नगरके निकट उद्यानमें आकर ठहरे। उस समय भारतवर्षका एकच्छत्र राज्य करने वाला सम्राट चन्द्रगुप्त उज्जयिनीमें ही निवास करता था।
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