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उसको रात्रि के अंतिम पहर में सोते हुए १६ सोलह स्वप्न दिखलाई दिये । १- कल्पवृक्षकी शाखा टूटगई है । २- सूर्य अस्त होता हुआ देखा । ३ - चन्द्रमाके मंडल में बहुतसे छेद देखे । ४ - बारह फण वाला सर्प दिखाई दिया । ५- देवका विमान पीछे लौटता हुआ देखा । ६ - अपवित्र स्थान में ( धूल कूडे करकटमें ) फूला हुआ कमल देखा ७- भूत प्रेतोंको नाचते कूदते देखा । ८ - खद्योत ( पटवीजना - जुगुनू ) का प्रकाश देखा ९- एक किनारे पर थोडेसे जलका भरा हुआ और बीचमें सूखा ऐसा तालाब देखा । १० - सोनेके थाल में कुत्तको खीर खाते हुए देखा । ११ - हाथी के ऊपर बंदरको सवार देखा । १२ - समुद्रको अपने किनारों की मर्यादा तोडते देखा । १३ - छोटे छोटे बछडोंसे खिचता हुआ रथ देखा, । १४ - ऊंट के ऊपर चढ़ा हुआ राजपुत्र देखा । १५-धुलसे हु रत्नों का ढेर देखा । ९६ तथा काले हाथियों का आपसमें युद्ध देखा ।
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इन अशुभ स्वप्नको देखकर चन्द्रगुप्तको कोई भारी अनिष्ट होनेकी आशंका होने लगी । इस कारण उसका चिंतातुर हृदय उन अशुभ स्वप्न का फल जानने के लिए व्यग्र हो उठा । प्रातःकाल होते ही नित्य नियम समाप्त करके जैसे ही राजसभामें पहुंचकर राजसिंहासनपर बैठा कि उद्यानके वनपालने उनके सामने अनेक प्रकारके फल फूल भेट करके निवेदन किया कि महाराज ! उद्यानमें श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु आचार्य अपने संघसहित पधारे हैं ।
यह शुभ समाचार सुनकर चन्द्रगुप्तको अपार हर्ष हुआ । उसने विचार किया कि आज मेरी चिंता श्री भद्रबाहु स्वामी के दर्शनसे दूर हो जायगी । यह विचार कर उसने हर्षित होकर वनपालको अच्छा पारितोषक दिया । और नगर में आनन्दकी मेरी बजवायी । नगर निवासिनी जनताने श्री भद्रबाहु आचार्यका आगमन जानकर हर्ष मनाया ।
सम्राट् चन्द्रगुप्त भद्रबाहु आचार्य के समीप बन्दना करनेके लिये अपने मंत्री मंडल, मित्र परिकर, कुटुम्ब परिजन सहित बढे समारोहसे चला | नगरकी जनता भी उसके पीछे पीछे चली ।
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