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र्थना करके दुर्भिक्ष के कुसमयमें भी वहां पर ही ठहरनेका निवेदन किया । श्रावकोंका बहुत आग्रह देखकर उन्होंने वहां पर ठहरना स्वीकार कर लिया । उनके संघके अन्य साधु भी उनके साथ वहां पर ठहर गये । शेष बारह हजार साधुओं को अपने साथ लेकर श्री भद्रवाहु आचार्य दक्षिण की ओर चल दिये।
भद्रबाहु आचार्य अपने संघ सहित विहार करते करते श्रवणवेलगुलके समीप वनमें पहुंचे। वहांपर उनको किसी निमित्तसे यह मालम हो गया कि अब मेरी आयु बहुत थोडी रह गई है। ऐसा समझकर उन्होंने समाधिमरणके लिये सन्यास धारण करनेका विचार किया । उन्होंने अपना विचार मुनिसंघके सामने प्रगट किया । फिर अपने आचार्यके पद पर आचार्यपदके सर्वगुणोंसे सुशोभित दशपूर्वके घारी विशाख मुनिको प्रतिष्ठित किया और उन विशास्त्राचार्यके साथ समस्त मुनियोंको चोलपांड्य देशमें जानकी आज्ञा दी। __भद्रबाहु स्वामी के पास वैयावृत्य ( सेवा ) करने के लिये प्रभाचन्द्र मुनि (पूर्वनाम सम्राट चन्द्रगुप्त ) रह गये । वहां कटवा पर्वतपर एक गुफाके भीतर भद्रबादु स्वामी सन्यास धारण करके रहने लगे। प्रभाचन्द्र मुनि उनकी सेवा करने लगे। कुछ दिन पीछे अंतिम श्रुतकेवली श्री . भद्रबाहु स्वामी समाधिपूर्वक स्वर्गयात्रा कर गये। प्रभाचन्द्र मुनि वहांपर ही तपश्चरण करने लगे। ___ उधर उत्तर भारतवर्षमें विन्ध्याचल तथा नील पर्वतके मध्यवर्ती देशोंमें दुर्मिश का प्रारंभ हुआ। जलवर्षा एक वर्ष नहीं हुई, दो वर्ष नहीं हुई, तीन वर्ष नहीं हुई। दरिद्र लोगोंके सिवाय साधारण जनताके पास भी खानेके लिए अन्न नहीं रहा । उधर उजैनमें कुबेरमित्र आदि सेठोंने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार भूखे लोगोंको खानेके लिए अन्नदान प्रारंभ कर दिया। उज्जैनके सिवाय अन्य नगरके दरिद्र लोगोंने जब यह सुना तो वे भी अपनी भूख मिटानेके लिए चारों ओरसे उज्जनमें आगये । और सबके सब कुबेरमित्र आदि सेठोंको दानशालामें पहुंचे । सेठोंकी दानशालाओंने कुछ दिनोंतक काम चलाया भी।
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