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अनेकोंका खयाल हैं कि " हमारे श्वेतांबरीय ग्रंथ सबसे प्राचीन हैं, खास गणधरोंके रचे हुए हैं दिगम्बरी विद्वानोंने उसकी नकल करके अपलें ग्रंथ बनाये हैं " । उनकी यह धारणा सर्वथा असत्य है । जैन ग्रंथोंका लेखन जिस समय प्रारम्भ हुआ उस समय प्रथम ही दिगम्बरीय ऋषियोंने ही सिद्धान्त शास्त्र बनाये । उनके पीछे श्वेताम्बरीय शास्त्रोंकी रचना हुई है इस बातको हम श्वेताम्बरीय शास्त्रोंसे ही सिद्ध करते हैं ।
श्वेताम्बरीय ग्रंथरचना प्रारम्भ होनेके विषयमें प्रसिद्ध श्री श्वेताम्बर आचार्य आत्मारामजीने अपने तत्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथके सातवें पृष्ठ पर लिखा है कि,
" सूत्रार्थं स्कंदिलाचार्यने संधान करके कंथाग्र प्रचलित करा था सोही श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणजीने एक कोटी ( १००००००० ) पुस्तकों में आरूढ करा |
"
• श्री देवर्द्धिगणिक्षमा श्रमणजीने जो लिखे सो अन्य गतिके न होनेसे और सर्वज्ञान व्यवच्छेद होनेके भयसे और प्रवचन की भक्ति से लिखे हैं "
·
इससे यह निश्चित सिद्ध हो गया कि श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ही वेताम्बरीय ग्रंथरचना की नींव डाली। उनके पहले मुनि आत्माराम जीके कथनानुसार श्वेताम्बरीय शास्त्र कंठस्थ थे, ग्रंथस्थ नहीं थे ।
श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणजी किस समय हुए इस बातको उक्त कलिकालसर्वज्ञ मुनि आत्मारामजीने तत्व निर्णयप्रासाद के ५५४ वें पृष्ठपर यो लिखा है
"(
प्रथम सर्व पुस्तक ताडपत्रोपरि लिखने लिखाने वाले श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण पूर्वके ज्ञानके धारक हुए हैं वे तो श्री वीरनिर्वाण से ९८० वर्ष पीछे हुए हैं। "
श्वेताम्बरीय आचार्य आत्मारामजी श्वेताम्बरी भाइयोंके लिखे अनु. सार ' कलिकालसर्वज्ञ ' थे इस कारण वे श्वेताम्बरीय सिद्धान्तका वि बय कोई अन्यथा लिख सकते हैं ऐसा हम तथा हमारे इवेताम्बरी भाई '
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