Book Title: Shwetambar Mat Samiksha
Author(s): Ajitkumar Shastri
Publisher: Bansidhar Pandit

View full book text
Previous | Next

Page 229
________________ । २२१ । लक [नम] कहते हैं । अचेलक के भावको आचेलक्य यानी नग्नपना कहते हैं । वह नग्न ग्ना तीर्थंकरोंके आश्रयसे रहा आया है। उनमेंसे पहले और अंतिम तीर्थकरके इंद्र द्वारा लाकर दिये गये देवदूष्य वस्त्र के हट जानेसे उनके पदा अचेलकत्व यानी नग्न वेष रहा है । और अन्य तीर्थकरोंके तो सदा सचेलकत्व यानी वस्त्रसहितपना है। इस विषयमें किरणावली टीकाकार जो चौवीसों तीर्थंकरोंके इंद्र द्वारा दिये गये देवदूष्य वस्त्र हट जानेसे नग्नपना कहता है सो सन्देह भी हुई बात है। कल्पसूत्रके इस लेखसे यह सिद्ध हुआ कि श्वेतांबरीय ग्रंथकार जैन साधुओंके नग्न दिगम्बर वेषको केवल दो हजार वर्ष पहलेसे ही नहीं किंतु भगवान ऋषभदेवके समयसे ही स्वीकार करते हैं। कतिपय श्वेतांबरी ग्रंथकार ( किरणावलो टीकाकार आदि ) समस्त तीर्थंकरोंकी साधु अवस्थाको नग्न दिगम्बर रूपमें मानते हैं और लिखते हैं । फिर मुनि आत्मानंदजीके लिखनेमें कितनी सत्यता है इसका विचार स्वयं श्वेताम्बरी भाई करें। समस्त राजवैभव, धनसंपत्तिका परित्याग करने पर भी तीर्थकर इन्द्र के दिये हुए लाखों रुपयेके मूल्य वाले देवदूष्य कपडेको अपने पास क्यों रखते हैं ? उस वस्त्रसे उनके साधुचारित्रमें क्या सहायता मिलती है ? इन्द्र इस देवदृष्य वस्त्रको तीर्थकरके कंधेपर रख देता है। फिर उस वस्त्रको तीर्थकर ओढ लेवें तो उनके उस वस्त्रमें ममत्वभाव होने से परिग्रहका दोष क्यों नहीं ? और ओढते नहीं तो वह वस्त्र कंधपर सदा रक्खा कैसे रह सकता है ? उठने, बैठने, चलने, ठहरने, आदि दशामें शरीरके हिलने चलनेसे तथा हवा आदिसे दूर क्यों नहीं हो जाता ? समस्त परिग्रह छोड देनेपर उस अमूल्य देवदृष्य वस्त्रको स्वीकार करके अपने पास रखनेकी तीर्थंकरोंको आवश्यकता क्या है ? यदि देवदूप्य वस्त्र रखकर भी तीर्थकर निर्दोष रहते हैं तो मुकुट, अंगरखा, धोती, डुपट्टा, आदि वस्त्र पहन कर भी निर्दोष क्यों नहीं रह सकते ? इत्यादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288