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व्रतवारी साधु श्वेताम्बरी ग्रंथों के लिखे अनुसार तथा स्वयं मुनि आत्मानंदजी के लिखे अनुसार दो प्रकारके होते हैं । एक तो पाणिपात्र जो कि बिलकुल परिप्रहरहित नम दिगम्बर होते हैं। श्वेताम्बरीय ग्रंथों के मतानुसार वे ही सबसे ऊंचे दर्जेके साधु होते हैं। इन ही पाणिपात्र साधुओंको दिगम्बर सम्प्रदाय में महात्रतधारी साधु ( मुनि ) माना गया है । दूसरे - पात्रधारी - यानी कपडे, वर्तन, दंड आदि परिग्रहके धारण करनेवाले साधु होते हैं । जैसे आजकल वेताम्बरीय साधु दीख पडते हैं जिनको कि दिगम्बर सम्प्रदाय में नवमी दशमी, सातवीं आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक बतलाया गया है । पाणिपात्र वस्त्ररहित नग्न उत्कृष्ट जिनकल्पी साधु भगवान ऋषभदेवके समय से ही होते आये हैं ऐसा श्वेताम्बरीय ग्रंथ भी स्वीकार करते हैं । तदनुसार इवताम्बरीय ग्रंथों से तथा श्वेताम्बरीय मुनि आत्मानंदजीके मुखसे स्वयं सिद्ध हो गया कि जबसे जैन धर्मका उदयकाल हैं, नम दिगम्बर साधु तबसे ही होते हैं 1 कल्पसूत्र संस्कृत टीका के प्रथम पृष्ठपर आचेलक्य कल्पके विषयमें इस प्रकार स्पष्ट लिखा हैं
आचेलक्यमिति न विद्यते चेलं वस्त्रं यस्य सोऽचेलकस्तस्य भावः अचेलकत्वं विगतवस्त्रत्वं इत्यर्थः । इसकी गुजराती टीकावाले कल्प सूत्रके प्रथम लिखा है
पृष्ठ पर यों
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" जेने चेल एटले वस्त्र न होय ते अचेलक कहेबाय । ते अचेल - कनो भाव ते आचेलक्य अर्थात् वस्त्ररहितपणुं । ते वीर्थंकरोने रहे छे ते पेहेला भने छल्ला तीर्थकरोंने शकेन्द्रे लावी आपेला देवदूष्य वस्त्रनो अपगम थवाथी तओने सर्वदा अचेलकत्व एटले वस्त्ररहितपण छे अने बीजा तीर्थंकरोंने सो सर्वदा सचेलकत्व बस्त्रसहितपणुं छे । आ विषे किरणावली टीकाकारे जे चोवीस तीर्थकरोने पण शक्र इन्द्रे आपला देवदूप्य वस्त्रना अपगम थवाथी अचेलकपणुं कहयुं छे ते शक भरेलु छे । "
अर्थात - जिस साधुके पास कोई कपडा नहीं होता उसको अचे
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