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६२.८ ।
भवन्त्यसंख्येयवर्षायुषस्तता तेऽनपवायुषो मन्तव्याः ।" अर्थात्-कर्मभूभिभोंमें [ भरत, ऐरावत, पूर्व पश्चिम विदेहों में है जो मनुष्य पहले दूसरे तीसरे समयमें जब उत्पन्न होते हैं तब वे असंख्यात वर्षोंकी
आयुवाले होते हैं और तब ही वे अपवर्त्यआयुवाले यानी अकालमृत्युसे न मरनेवाले होते हैं। - इस प्रकार तत्वार्थाधिगम सूत्रके अटल, अमिट सिद्धान्तके विरुद्ध कल्पसूत्रका कथन ठहरता है। दोनों ही ग्रंथ श्वेतावर सम्प्रदायमें ऋषिप्रणीत माने जाते हैं किन्तु एकक प्रामाणिक माननेपर दूसरा अप्रामाणिक ठहरता है।
भोगभूमियाका नरकगमन. श्वेताम्बरीय ग्रंथोंने १० अछरे ( आश्चर्यजनक बातें ) बतलाये हैं उनमेंसे ७ वा अछेर हरिवंशकी उत्पत्ति वाला इस प्रकार है ।
कौशांबी नगरमें सुमुख राजा था । उसी नगरमें वीरकुविन्द नामक एक सेठ रहताथा । उसकी स्त्री वनपाला बहुत सुन्दरी थी। एक दिन राजाने उसकी सुन्दरता देख कामासक्त होकर दुतीके द्वारा उसको अपने घर बुला लिया। राजाके घर पहुंचकर वनमाला भी राजाके साथ रहने लगी। वीर कुविन्दने जब अपनी स्त्रोको धरपर नहीं पाया तो वह उस. के प्रेमसे विव्हल होकर इधर उधर घूमने लगा। मरण समीप आनेपर उसने कुछ अपने भाव अच्छे बना लिये इस कारण वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें किल्विषक देव हुआ । उप सुनुख गना और वनमाला के ऊपर बिजली गिरी जिससे वे दोनों मरका हरेवर्ष क्षेत्रमें युगलिया [ भोगभूमिया ] उत्पन्न हुए । वीर कु विन्दके जीव किलिषषक देवने श्वविज्ञानसे अपने पूर्वभवका वृत्तान्त विचार करके उस पूर्वभवमें अपने असह्य संतापका कारण सुमुख राजा और अपनी स्त्री वनमालाको समझा । तदनुसार उन दोनोंको अपना शत्रु समझकर उनसे बदला लेनेके लिये हरिवर्ष क्षेत्रमें आया । वहां आकर उसने उस भोगभूमिया युगल को भोग. भूमिके सुखोंसे वंचित करनेके लिये तथा अकालपरण कराकर उसको ( स्त्री, पुरुषको ) नरक भेजनेके लिये वहां से उठाकर इस भरतक्षेत्रकी चंपा नगरीमें लाकर रख दिया ।
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