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( १४८ )
___" साधुओने हमेशा एक एक बार आहार करवो कल्पे पण आचार्य आदिक तथा वैयावच्छ करनारने वे बार पण आहार लेवो कल्पे । अर्थात एक वार भोजन कन्याथी जो ते वैयावच्छ आदिक न करी शके तो ते वे वार पण आहार करे । केम के तपस्या करतां पण वैयावच्छ उस्कृष्ट छ ।"
अर्थात्- साधुओंको सदा एक बार आहार करना योग्य है किन्तु आचार्य आदिक तथा दूसरे किसी रोगी साधुकी वैयावृत्य ( सेवा ) करने वाले को दो वार भी दिनमें आहार करना योग्य है । यानी एकवार भोजन करनेसे जो वह वैयावृत्य आदिक न कर सके तो वह दो बार आहार करे। क्योंकि तपस्या करने से भी बढकर वैयावृत्य है। ___ इस कथनमें परस्पर विरोध है सो तो ठीक ही है किन्तु अन्य साधुओंको उनके छोटे अपराधोंको प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य स्वयं दो बार भोजन करें और अन्य मुनियोंको एकही बार भोजन करने दें । यह कैसा आश्चर्य और हास्यजनक बात है।
किसी मुनिकी सेवा करने वाला साधु इस लिये अपने एकबार भोजन करनेके नियमको तोडकर दो बार दिनमें आहार करे कि तप करनेसे वैयावृत्य उत्कृष्ट है । यह भी अच्छे कौतुककी बात है। इस तरह तो साधुओंको तपस्या छोडकर केवल वैयावृत्य में लग जाना चाहिये क्योंकि भोजन भी दो बार कर सकेंगे और फल भी तपस्यासे अधिक मिलेगा।
उसके आगे यों लिखा है__ " वली ज्यां सुधी डाढी मुंछना वालो न आव्या होय अर्थात, बालक एवां साधु साधवीओंने वे वार पण आहार करवो कल्पे । तेमां दोष नथी । माटे एवी रीते आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, ग्लान भने बालक साधुने वे वार पण आहार करवो कल्पे ।"
यानी-जब तक डाढी मूछोंके बाल न आये होंय अर्थात् बालक साधु साध्वीको दो बार भी आहार करना योग्य है। उसमें दोष नहीं है । अत एव इस प्रकार आचार्य, उपाध्याय, रोगी साधु और बालक साधु साध्वीको दो बार भी माहार करना योग्य है।
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