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मुझको गुरुप्रमादसे तत्वज्ञान है उसको किसी योग्य शिष्य को पढा नाऊ । क्योंकि आगे मुझ सरीखा ज्ञानधारी भी कोई न हो सकेगा। ऐसा विचार कर वेणाक तटपर एक मुनिसंघ विराजमान था उसमेंसे 'पुष्पदन्त ' और ' भूतबलि ' नामक दो तीक्ष्णबुद्धिशाली शिष्योंको बुलाया और उनको उन्होंने पढाया। वे दोनों मुनि शीघ्र धरसेनाचार्यसे पढ कर विद्वान हो गये । तत्पश्चात् धरसेनाचार्य स्वर्गयात्रा कर गये । ___ यहां तक जैन साधु तथा गृहस्थ श्रावक मौखिक रूपसे अपने गुरु से पढते तथा स्मरण रखते रहे । निर्मल बुद्धि और स्मरणशक्ति प्रबल होनेके कारण उनको पाठ पढने पढाने तथा याद करने करानेके लिये ग्रंथोंके सहारेकी आवश्यकता न होती थी। किन्तु पुज्य श्री पुष्पदन्त तथा भूतबलि आचार्यने मनुष्यों के दिनोंदिन गिरते हुए क्षयोपशम, बुद्धि बल एवं स्मरण शक्ति की निर्बलता देखकर जैनसिद्धान्तकी रक्षाके लिये विचार किया कि अब तत्वज्ञान लोगोंको विना शास्त्रोंके रचें, मौखिक पढने पढानेसे नहीं हो सकता । इस कारण अवशिष्ट तात्विक बोधको ग्रंथरूपमें रख देना अति आवश्यक है । ऐसा निर्णय कर श्री १०८ भूतबलि आचार्यने सबसे प्रथम 'षट्खंडागम' नामक कर्म ग्रंथ लिखकर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके शुभ दिवसमें बड़े समारोह उत्सवमें उस ग्रंथकी पूजा करके शास्त्र निर्माणका प्रारंभ किया । इससे पहले कोई भी जैनशास्त्र नहीं बना था। तदनन्तर फिर अन्य अन्य ग्रंथोंकी रचना होती रही। श्री भूतबलि आचार्यका यह समय अनेक ऐतिहासिक प्रमाणोंसे विक्रम संवतसे पहलेका निश्चित होता है । ___ तदनन्तर कुछ समय पीछे विक्रम संवत ४९ में श्री कुंदकुंदाचार्य हुए उन्होंने समयसार, षट्पाहुड, रयणसार, नियमसार आदि अनेक
आध्यात्मिक ग्रंथोंकी रचना की तथा श्री भूतबलि आचार्य विरचित पखंड आगम ग्रंथपर वडी टीका रची। इस प्रकार कर्म ग्रंथोंकी तथा भाध्यात्मिक आदि विषयों के ग्रंथोंकी रचना दिगम्बरीय ऋषियोंने विक्रम संवतकी प्रथम शताब्दी तथा उससे भी पहले कर डाली थी।
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