________________
"
>
दिगम्बरीय आचार्य श्री कुमुदचन्द्राचार्यके हार जानेकी बात सत्य है अथवा असत्य, यह सिद्ध हो जायगा ।
"
तदनुसार हम प्रथम ही कवि यशचन्द्र विरचित 'मुद्रित कुमुदचन्द्रप्रकरण नाम श्वेताम्बरी नाटक ( वीर सं. २४३२ में बनारस से प्रकाशित ) पर प्रकाश डालते हैं । यह नाटक केवल श्रीकुमुदचन्द्राचार्य और देवसूरि शास्त्रार्थ के समस्त आद्योपांत विषयको प्रगट करनेके लिये बनाया गया है अत एव अन्य ग्रंथों की अपेक्षा इसी एक ग्रंथके आधारसे उक्त शास्त्रार्थ के विषयमें बहुत कुछ निर्णय हो सकता है ।
इस मुद्रिकुमुदचन्द्र नाटकके ८ वें पृष्ठ पर श्री कुमुदचन्द्राचार्यकी प्रशंसा में १३ पंक्तियोंकी संस्कृत गद्य लिखी है उसमें ग्रंथकारने स्पष्ट बतलाया है कि कुमुदचन्द्राचार्यने बंगाल, गुजरात, मालवा, निषध, सपादलक्ष, लाट आदि समस्त भारतवर्षीय विख्यात देशोंके उद्भट, बाग्मी विद्वानोंको शास्त्रार्थों में हराकर निर्मद कर दिया था । गद्य के अन्त में लिखा है कि
" जयतु... चतुरशीतिविवाद बिजया जितो ज्जितयशः पुखसमर्जितचन्द्र, कुमुदचन्द्रनाम वादीन्द्र ! "
अर्थात्-चौरासी शास्त्रार्थोंकी विजय से जिसने बहुत भारी कीर्तिसमूह प्राप्त किया है ऐसा कुमुदचन्द्र वादीश्वर जयवन्त हो ।
इसके आगे ९ वें पृष्ठपर कुमुदचन्द्राचार्यकी प्रशंसा में एक पद्य इस प्रकार लिखा है ि "जीयादसो कुमुदचन्द्र दिगम्बरेन्द्रो दुर्वादिदन्तिमदनिर्दलनेन येन । भेजे मुदा चतुरशीतिविलासभङ्गीसम्भोगचारुकरणैः सततं जयश्रीः । " अर्थात् वह कुमुदचन्द्र दिगम्बराचार्य विजयी हो जिसने बादिरूपी हाथियों का मद सुखा दिया है और चौरासी शास्त्रार्थों में भोगलेने के कारण जयश्री ( जीत ) सदा जिसके साथ रहती है ।
बराबर
यद्यपि यह कुमुदचन्द्राचार्यकी प्रशंसा उनके ही बन्दीद्वारा की गई है किन्तु यह बात भी असत्य नहीं कि वे इस प्रशंसा के पात्र थे। क्योंकि एक तो कुमुदचन्द्राचार्यकी विद्वत्ताकी प्रशंसा इसी रूपसे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com