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किंतु चौरासी शास्त्रार्थ इसके पहले कर चुके थे । फिर भला स्वप्नमें भी कोई बुद्धिमान निष्पक्ष पुरुष यह संभावना कर सकता है कि वास्तवमें कुमुदचन्द्राचार्य 'कोटाकोटि' शब्दको भी नहीं समझ पाते थे ? देवसूरिके पक्षयोगका ठीक अवधारण कर उसका उत्तर भी नहीं दे सकते थे ? तथा जो देवसुरि शास्त्रार्श करनेमें कुमुदचन्द्राचार्यके समान न तो पटु थे और न प्रसिद्ध शास्त्रार्थ विजेता एवं यशस्वी ही थे, जिन देवम् रिने प्रमाणनयतत्वालोकालंकार ग्रंथका निर्माण अपनी प्रतिभाशक्तिसे न कर सकनेके कारण परीक्षामुख नामक दिगम्बरीय ग्रंथका आधार लिया । वे साधारण विद्वत्ताके अधिकारी देवसरि दिग्विजयी पंडित कुमुदचन्द्राचार्य पर विजय पागये । इस बातको यदि "कुंजडा अपने खट्टे बेरोंको भी मीठा बताता है " इस कहावतका अनुसरण कहा जावे तो कुछ अनुचित नहीं ।
वादीकी अथवा प्रतिवादीकी जय या पराजय उनकी अकाट्य युक्तियोंपर निर्भर होता है । तदनुसार यदि वास्तवमें देवसरिने चौरासी शास्त्रार्थोके विजेता कुमुद चन्द्राचार्यको हराया था तो नाटककार को अथवा अन्य किसी श्वेताम्बर ग्रंथकारको वे २-४ प्रबल युक्तियां तो लिखनी थीं जिनका प्रत्युत्तर कुमुदचन्दाचार्य नहीं दे सके। किन्तु उस युक्ति जाल का नाममात्र भी उल्लेख न करके केवल ' कोटाकोटि । शब्दपर हार जीतका निर्णय दे दिया है। मानो दिग्विजयी विद्वान श्री कुमुदचन्द्राचार्यको उतना भी व्याकाणबोध नहीं था। पक्षपातवश न्याय्य बातपर परदा डाल देना इसीको कहते हैं ।
इस कारण श्वेताम्बरीय ग्रंथकारोंके लिखे अनुसार दिग्विजेता श्री कुमुदचन्द्राचार्य और परीक्षामुख नामक दिगम्बरीय न्याय ग्रंथकी नकल करके प्रमाणनयतत्वालंकार पुस्तकके बनानेवाले श्री देवसरिकी विद्वताकी तुलना करते हुए तथा देवसरि द्वारा प्रतिपादित दो-एक भी प्रबलयुक्तिका अभाव देखकर यह कहना पडता है कि चौरासी प्रबल शास्त्रार्थोंके विजेता प्रकाण्ड विद्वत्ताके अधिकारी श्री कुमुदचन्द्राचार्य के देनमूनि द्वारा गनिन होनेकी नान यथा व्यया है।
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