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वादिदेवसूरिने " प्रमाणनयतत्वालोकालंकार " नामक एक न्याय ग्रंथ सूत्ररूपमें लिखा है। वादिदेवसूरि इतने भारी उद्भट नैयायिक विद्वान थे कि उन्होंने अपना यह ग्रंथ बनाने में दिगम्बरीय न्यायग्रंथ परीक्षामुखकी आद्योपान्त नकल कर डाली है । केवल सूत्रों के शब्दों में उल्ट फेर की है अथवा कुछ अधिक सूत्र बनाये हैं । शेष कुछ भी विशेषता नहीं रक्खी हैं। हां, इतनी विशेषता अवश्य है कि परीक्षामुas fear आपने प्रमेय कमलमार्तण्डको भी सामने रक्खा और कुछ विषय उसमें से लेकर भी सूत्र बनादिये हैं । इस प्रकार परीक्षामुख और प्रमेयकमलमार्तण्ड के आधारसे प्रमाणनयतत्वालोकालंकार ग्रंथकी काया तयार हुई हैं | इसका चित्र निम्नलिखित रूपसे अवलोकन कीजिये ।
प्रथम ही परीक्षामुख और प्रमाणनयतत्वालोकालंकार के प्रथम परिच्छेदके सूत्रोंको देखिये -
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परीक्षामुखमें पहला सूत्र है " स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं " तब प्रमाणनयतत्वालोकालंकार में दूसरा सूत्र स्वव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्" है। यहां केवल परीक्षामुखकी नकल करने में 'अपूर्व' विशेषण छोड दिया है ।
परीक्षामुखका दूसरा सूत्र है " हिताहितप्रप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् " इसके स्थानपर वादिदेवसुरिने " अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकार तिरस्कारक्षमं हि प्रमाणमतो ज्ञानमेवेदम् " यह सूत्र बना दिया है ।
जब परीक्षामुखमें तीसरा सूत्र " तन्निश्वयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् " है तब प्रमाणनयनत्वालोका का छठा सूत्र तद्व्यवसायस्वभावं समारोपपरिपन्यित्वात् प्रमाणाद्वा " है ।
परीक्षामुखके सातवें, आठवें " अर्थ-येव दुन्मु बतया,
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महमात्मना वेद्मि " के स्थानवर प्राणतत्त्वाला कालंकार में एक १६ वां सूत्र " बाह्यस्येव तदामुख्येन करिक उसकमहमात्मना जानामीति " है। यहां पर केवल दृष्टान्त और क्रिया बदली है ।
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