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थोडासा फेरफार किया है । शेष सब परीक्षामुख का वाक्यविन्यास कर दिया है । हेतुके भेद जैसे जितने तथा जिस नामके श्री माणिक्यनन्दि आचार्यने परीक्षामुखमें किये हैं ठीक उसी प्रकार वादिदेवमूरिने भी लिख दिये हैं।
इस सूत्रके आगेके सूत्रों में प्रत्येक प्रकारके हेतुभेदके दृष्टांत जैसे परीक्षा मुखमें लिखे हैं उसी प्रकारके दृष्टान्त श्वेताम्बरीय ग्रंथ प्रमाण नयतत्वालंकारमें उल्लिखित हैं।
अभावात्मक साध्यके अवसरपर साध्यसे अविरुद्ध अनुपलब्धिरूप हतुके सात भेद बतलाने वाला ७८ वां सूत्र परीक्षामुखमें " अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोचरसहचरानुपलम्भभेदात् " लिखा है। तब वादिदेवसूरने इस सूत्रके स्थानपर प्रमाणनयतत्वालंकारमें ९० तथा ९१ वां सूत्र “ तत्रा विरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधावबोधे सप्तप्रकारा, प्रतिषेध्येनाविरुद्धानां स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचराणामनुपलब्धिरिति” लिख दिया है । परीक्षामुखके उपयुक्त सूत्रसे इन सूत्रोंमें किसी भी बातका अंतर नहीं है। यदि प्रमाणनयतत्वालंकार ग्रंथको वादिदेवसरिने परीक्षा मुखका विना माश्रय लिये स्वतंत्रतासे बनाया होता तो परीक्षामुखके सूत्रों के साथ इतनी भारी समानता न होती ।
इन सात प्रकारके हेतुओंके दृष्टान्त जिस प्रकार परीक्षामुखमें दिये हैं ठीक उसी प्रकार प्रमाणनयतत्वालंकारमें भी दिये गये हैं।
आगम प्रमाणका स्वरूप परीक्षामुखके तीसरे परिच्छेदके अन्तमें ही कर दिया है। वादिदेवसूरिने आगमप्रमाणके लिये एक परिच्छेद अलग बना दिया है। परंतु परीक्षामुखमें आगम प्रमाणका लक्षण बतलाते हुए ९९ वां सूत्र "बाप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः" लिखा है इसी प्रकार इस सूत्रके स्थानपर प्रमाणनयतत्वालंकारके चौथे परिच्छेदका पहला सूत्र " आप्त बचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । " लिखा है । दोनों सूत्रों के शब्द समान हैं और उनके तात्पर्यमें भी कुछ अंतर नहीं है।
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