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( १७८ , समन्तभद्रस्स चिराय जीया-वादीभवज्रांकुशसूक्तिजातः । . यस्य प्रभावात्सकलावनीय वंध्यास दुर्वादुकवार्तयापि ॥
अर्थात्-वह समन्तभद्राचार्य सदा जयशाली रहे क्यों कि वादी ( शास्त्रार्थ करने वाले ) रूपी हाथियों को निर्मद करने के लिये वज्र अंकुशके समान जिसका वचन है । तथा जिसके प्रभावसे समस्त पृथ्वी मंडल दुर्वादियोंसे शून्य हो गया है। अर्थात समन्तभद्रके प्रभावसे कोई भी वादी बोलने की शक्ति नहीं रख पाता है।
____ इत्यादि २-४ शिलालेखोंमें ही नहीं किन्तु सैकडो भिन्न भिन्न ग्रंथकारोंने समन्तभद्राचार्यको अपने ग्रंथों में आदरके साथ " वादिसिंह, सरस्वती विहारभूमि, कविकुंजर, परवा दिदन्तिपंचानन, महाकविब्रह्मा, महाकवीश्वर, कविवादिवाग्मिचूडामणि, " इत्यादि विशेषणों के साथ म्मरण किया है।
अन्य बातोंको दूर रख कर हम यदि श्वेताम्बरी ग्रंथकारोंकी ओर दृष्टिपात करें तो उन्होंने भी स्वामी समन्तभद्राचार्यकी प्रखर विद्वत्ताको हृदयसे स्वीकार किया है। देखिये श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रधान आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने अपने अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथमें ' वादिमुख्य ' [ शास्त्रार्थ करनेवालों में प्रधान विशेषणसे समन्तभद्राचार्यका स्मरण किया है । अनेकान्त जयपताकाकी स्वोपज्ञ टीकामें लिखा है कि " आह च वादिमुख्यः समन्तभद्रः" अर्थात्-वादिमुख्य समन्तभद्र भी यों कहते हैं।
ऐसी विश्वविख्यात विद्वत्ताके अधिकारी श्रीसमन्तभद्राचार्यने ही सबसे प्रथम जैन न्यायग्रंथों की रचना प्रारम्भ की थी । यद्यपि समन्तभद्रा. चार्य सिद्धान्त, साहित्य, व्याकरण आदि विषयों के भी असाधारण पंडित महाकविब्रह्मा कहलाते थे किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि समस्त विषयोंसे अधिक उन्होंने न्यायविषयका पाण्डित्य प्रगट किया था। वे अपने भगवत्स्तोत्रों में भी असाधारण विद्वत्ताके साथ न्यायविषयको भर गये हैं जिससे कि मनुष्य उनके बनाये हुए स्वयम्भूस्तोत्र युक्त्यनुशासन आदि ग्रंथों को ही पढकर न्यायवेत्ता विद्वान बन सकता है ।
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