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'यस्यांगलक्ष्मीपरिवमिन्न, तमस्तमोरेरिव रश्मिभिभम् । ननाश बाह्य बहु मानस, ध्यानप्रदीपातिशयेन भित्रम् ॥'
पढा उस समय शिवलिङ्ग फट कर चूर चूर हो गया और उसमेंसे चन्द्रप्रभ तीर्थकर की मूर्ति प्रमट हो गई । इस दिव्य अतिशयको देखकर शिवकोटि राजा राज्यका त्याग कर समन्तभद्राचार्यका शिष्य दिगम्बर साधु हो गया । पश्चात् उसने 'भगवति आराधना ' नामक प्राकृत ग्रंथ बनाया जो कि इस समय उपलब्ध भी है ।
श्रवणबेलगोल ( मद्रास ) के ५४ चे शिलालेखमें अंतिम श्लोक इस प्रकार है।
" पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनमरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोहं करहाटकं बहुमटं विद्योत्कटं संकट, वादार्थी विचराम्यहं भरपते शार्दूलविक्रीडितं ॥"
यह श्लोक समन्तभद्राचार्यने 'करहाटक' यानी कराड (सतारा ) नगरमें वहांके राजाके सामने कहा था। इसका मर्थ ऐसा है कि
पहले मैंने पटना नगरमें प्रादभेरी [शास्त्रार्थ करनेकी सूचना देनेवाला नगारा ] बजाई फिर मालवा, सिंधु, ढाका, कांचीपुर, भेलसा इन प्रधान प्रधान नगरोंमें भी बेरोकटोक बाद मेरी बजाई। अब विधाके स्थानभूत, मुमटोसे भरे हुए इस कराड नगरमें भाया हूं । हे राजन मैं शास्त्रार्थ करनेका इच्छुक सिंहके समान निर्भय सर्वत्र वूमता फिरता हूं।
काशीमें शिवकोटि राजाके सन्मुख समन्तभद्राचार्यने जो श्लोक कहा था उसका अन्तिम पद यह है।
" राजन् ! यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिग्रंथवादी।"
अर्थात्-हे राजन् ! जिसमें मेरे साथ शास्त्रार्थ करनेकी शक्ति हो वह मेरे सामने भा जावे में दिगम्बर जैन वादी है।
__ श्रवणबेलगोलके १.५ ३ (२५४) शिलालेख के अंतमें लिखा हुआ है कि
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