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दिगम्बर जैन सम्प्रदायके तो किसी भी ग्रंथ में किन्तु साधारण गृहस्थको भी मांस भक्षणका विधान उसे अभक्ष्य बतलाकर प्रत्येक मनुष्यको त्याग दिया है । किन्तु हमको खेद और हार्दिक दुःख होता है कि हमारे श्वेताम्बर तथा स्थानकवासी भाइयोंके मान्य, परममान्य ग्रंथों में वह बात नहीं है । उनमें मनुस्मृति आदि ग्रंथोंके समान कहीं तो मांसभक्षण में बहुतसे दूषण बतलाये हैं किन्तु कहीं किन्हीं ग्रंथों में उसी मांसभक्षणका पोषण किया है और वह भी अविरती या व्रती श्रावक के लिये नहीं किन्तु महाव्रतधारी साधुओंके लिये किया है । यद्यपि इस अभक्ष्य भक्षण विधानका आचरण किसी एक अघ भ्रष्ट साधुने भले डी किया होगा, अन्य किसीने भी न तो इसको अच्छा समझा होगा और न ऐसा आचरण ही किया होगा । किन्तु फिर भी आज्ञाप्रघानी स्वल्पज्ञानी कोई साधु इन ग्रंथोंकी आज्ञानुसार मांस भक्षण कर सकहै । इस कारण इस विषय का प्रकाशमें आना आवश्यक है ।
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ता
मुनिको ही क्या नहीं है क्योंकि
करनेके लिये उपदेश
प्रथमहि - कल्पसूत्र संस्कृत टीका पृष्ठ १७७ में यों लिखा है" यद्यपि मधुमद्यमांसवर्जनं यावज्जीवं अस्त्येव तथापि अत्यन्तापवाददशायां बाह्यपरिभोगाद्यर्थं कदाचिद् ग्रहणेपि चतुर्मास्यां सर्वथा निषेध: "
इसका गुजराती टीकावाले कल्पसूत्र ( विक्रम सं. १९६२ में श्रावक भीमसिंह माणेक बंबई द्वारा प्रकाशित - गुजराती भाषान्तर कर्ता श्री विनय विजयजी ) के ९ वें व्याख्यान के १११ वे पृष्ठपर २४-२५ - २६वीं पंक्ति में लिखा है
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" वली मद्य, मांस अने मांखण जो के साधुओंने जावोजीव वर्जनीय छे, तो पण अत्यंत अपवादनी दशामां, शरीरनां बहारनां उपयोग माटे कोइ पण वखते ते ग्रहण करवानो चौमासामां तो निषेधज छे । "
यानी - मधु, ( शहद ) मांस और मक्खन जो कि साधुओं को आजम त्याग करने योग्य हैं फिर भी अत्यंत अपवादकी दशा में शरीर के
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