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नहीं । यदि किसी रोगी मुनिके लिये उन चीजों की आवश्यकता हो तो दूसरी बात है ।
यानी -मुनि मछली और मांस रोगी मुनिके लिये ले सकता है । इससे इतना तो सिद्ध अपने आप हो जाता है कि रोगी मुनिकी चिकित्सा ( इलाज ) मांसके द्वारा हो सकती है। मांस मछली से चिकित्साका अर्थ यह ही है कि वह उस रोगी मुनिको खिलाया जाये क्योंकि मांस मछली खानेके ही काम में आते हैं । यदि कोई लोलुपी साधु मांस मछली खाना चाहे तो रोगी बनकर चिकित्सा के रूप में मांस मछली से अपनी इच्छा तथा बीमारी मिटा सकता है
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तथा - साधुकी वैयावृत्य करनेके लिये वैयावृत्य करने वाला साधु मांस और मछली भी गृहस्थके यहां से मांगकर ला सकता है । ऐसा सूत्रकारका तथा टीकाकारका मत है । यह बात साधुओंके लिये हैं जो कि पांच महाव्रतवारी एकेंद्रिय तकके जीवोंकी रक्षा करनेवाले होते है ! इससे बढकर अनुचित अभक्ष्य भक्षण की बात और कौनसी होगी । यह सर्वज्ञ देव समझे । कुछ और देखना चाहते हैं तो और गी देखिये |
साधुके चारित्रका हा प्ररूपण करने वाले इसी आचारांग सूत्रके १० व अध्यायके १० व उदेशक २०६ वें तथा २०७ वें पृष्ठपर ६२८ तथा ६३० का अवलोकन कीजिये
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से भिक्खु वा से ज्जं पण जागज्जा, बहुअहियं मंसंवा, मच्छवा, बहुकटंग, अरिं खलु पडिगाहितंसि अप्पे सिया भोयणजाए, बहु धिग्गिए तपगार बहुअद्रियं मंसं मच्लंवा बहुकंटगं लाने संत जावोपडिजाजा ॥ ६२ ॥
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अर्थात्-बहुत अस्थियो ( हड्डियों ) वाला मांस तथा बहुत कांटे वाली मछली को जिनके कि लेने में (हड्डियां, कांटे आदि ) चहुत चीज छाडनी पडे और बाडी बीज ( मांस ) खानेके लिये बने तो मुनिको बह नहीं लेना चाहिये ।
यानी मुनी ऐसा मांस खाने के लिये नहीं लेवे जिसमें फेंकने
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