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१ - आचारांगसूत्र ग्रंथ केवल महाव्रतधारी साधुके आचरणको प्रकाशित करने वाला श्वेताम्बरीय शास्त्रों में परममान्य ऋषिप्रणीत ग्रंथ है । उसमें जो कोई भी बात मिलनी चाहिये वह उच्च कोटिकी तथा पवित्र आचार वाली होनी चाहिये । किन्तु इस ग्रंथ में ऐसा नहीं पाया जाता । इस ग्रंथ में महाव्रतधारी साधुके लिये मांस भक्षण, मद्यपान, मधुसेबन आदि पापजनक बातोंकी ढील दी गई है जो कि न केवल जैन समुदायमें किन्तु सर्व साधारण जनता में भी निंद्य घृणित कार्य माना जाता है ।
देखिये १७५ वें पृष्ठ पर ५६५ वें सूत्रमें लिखा है कि
कोई साधु किसी गांव में यह समझ कर कि वहाँ पर मेरे पूर्व परिचित मनुष्य स्त्रियां हैं वे मुझे मद्य-मांस, मधु आदि भोजन देंगे उन्हें मैं अकेला खा पीकर पात्र साफ करके फिर दूसरी बार अन्य साधुओं के साथ भोजन लेने चला जाऊंगा । ऐसा करना साधुके लिये दोष जनक है इस कारण साधुको दूसरे साधुओंके साथ जाना चाहिये |
इस प्रकार इस सूत्र मद्यपान, मांस भक्षणका उल्लेख करके मांस भक्षणका विरोध न करते केवल अकेले भोजन लानेका निषेध किया है ।
सूत्र संस्कृत टीकाकार शीलाचार्य इस सूत्र पर अपनी यह सम्मति लिखते हैं कि कभी कोई साधु प्रमादी और लोलुपी हो जावे, मद्य मांस खाना चाहे उसके लिए सूत्रमें ऐसा लिखा है 1 परन्तु इसका अभिप्राय पाठक महाशय स्वयं निकाल लेवें ।
पृष्ठ १९५ पर ६०७ वें सूत्रमें लिखा है कि
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'साधु पुराना शहद ( मधु पुरानी शराब आदि न लेवे क्योंकि पुरानी शराब आदिमें जीव जंतु उत्पन्न हो जाते हैं । "
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क्या इसका यह अभिप्राय नहीं है कि नई शराब शहद आदि साधुको कोई दे देवे तो उसे वह ग्रहण कर लेवे ? जिस शहद और शराब में वह चाहे नयी हो अथवा पुरानी, अनन्त जीव पाये जाते हैं उस शराब
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