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इसी बात को मुनि आत्मारामजी प्रश्नोत्तर रूपमें आगे इस प्रकार इसी पृष्ठपर लिखते हैं—
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पूर्व पक्ष - जब जैनमतके चौदह पूर्वधारी, दशपूर्वधारी विद्यमान थे तबसे ही लेकर ग्रंथ लिखे जाते तो जैनमतका इतना ज्ञान काहे को नष्ट होता ? क्या तिस समय में लोक लिखना नहीं जानते थे ?
उत्तरपक्ष - हे प्रियवर ! पूर्वोक्त महात्माओंके समय में किसी की भी शक्ति नहीं थी जो संपूर्ण ज्ञान लिख सक्ता और ऐसे ऐसे चमत्कारी विद्या पुस्तक थे जे गुरु योग्य शिष्योंके विना कदापि किसीको नहीं दे सक्ते थे । वे पुस्तक कैसे लिखे जाते ? और बीजक मात्र । किंचित् लिखे भी गये थे । "
मुनि आत्मारामजी के इस लेखसे स्पष्ट हैं कि देवर्द्धिगणजी के समय (बीर सं. ६०० ) से श्वेतांबरीय ग्रंथ रचना प्रारंभ हुई थी दिगम्बर श्वेतांबर रूपमें संघभेद इसके बहुत पहले हो चुका था । श्वेतांबर साधु मुनि आत्मारामजी यह खुळे हृदय से स्वीकार करते हैं कि जिस समय साधुओं को अंग तथा पूर्वोका ज्ञान हृदयस्थ था उस समय ग्रंथरचना नहीं हुई । अत एव वर्तमान में उपलब्ध आचारांग आदि ग्रंथ वास्तविक आचारांग आदि ग्रंथ नहीं हैं। उनके नामसे अपूर्ण संक्षिप्त दूसरे नवीन छोटे ग्रंथ हैं ।
अब हम अपनी पहली उद्दिष्ट पात पर आते हैं । इस समय यहां यह बात सामने उपस्थित हैं कि वर्तमान समय में उपलब्ध श्वेताम्बरीय ग्रंथ सच्चे आगम कहे जा सकते हैं या नहीं ?
कतिपय श्वेताम्बरीय प्रख्यात ग्रंथोंके अवलोकन करने से हमारी यह धारणा है तथा अन्य कोई भी निप्यक्ष विद्वान यदि उन ग्रंथोंका rastra करेगा तो वह भी हमारी धारणा अनुसार यह विचार प्रगट करेगा कि कल्पसूत्र, आचारांगसूत्र आदि अनेक प्रख्यात श्वेताम्बरीय ग्रंथोंको आगम ग्रंथ मानना भारी भूल है। क्योंकि इन ग्रंथों में अनेक ऐसी बातें उल्लिखित हैं जो कि धार्मिक कोटिसे तथा जैन सिद्धान्त से बाहरकी बातें हैं। देखिये—
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