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यदि कदाचित् वह गृहस्थ उस बहुत हड्डिवाले मांसको मुनिके पात्रमें झट डाल देवे तो मुनि गृहस्थको कुछ न कहे किन्तु ले जाकर एकान्त स्थानमें पहुंच जीवजंतुरहित चाग या उपाश्रयके भीतर बैठ कर उस मांस या मछलीको खालेवे और उस मांस, मछलीके कांटे तथा हड्डियोंको निर्जीव स्थानमें रजोहरणसे ( पीछी या ओधासे ) साफ करके रख आवे ।
इससे बढकर मांस भक्षणका विधान और क्या चाहिये ? अहिंसाधर्मकी हद होगई । सूत्रके मांस, मत्स्य शब्दका खुलासा करनेके लिये इसी २.६ वें पृष्ठके सबसे नीचे टिप्पणीमें यों लिखा है---
"टीकाकार बाह्य परिभोगादि माटे अनिवार्य कारणयोगे मूलपाठना शब्दोंनो अर्थ मत्स्य, मांस अपवाद मार्गे करे छे । " ___ यानी-संस्कृत टीकाकार शीलाचार्य “ बहुअट्टिएण मंसेण मच्छेण " सूत्रकार के इन शब्दोंका अर्थ मत्स्य, मांस अनिवार कारण मिलनेपर अपवाद मार्ग में करता है।
___ महाव्रतधारी साधुके लिये मांस भक्षणका ऐसा स्पष्ट विधान होनेपर हमारे श्वेतांबरी भाई अपने आपको या अपने गुरुओंको अहिंसाधर्मधारी या मांसत्यागी किस प्रकार कह सकते हैं और किस तरह दुसरे मनुष्योंको मांस त्याग करने का उपदेश दे सकते हैं ?
दशबैका लिक सूत्र में ऐसा लिखा हैबहुअडियं पुग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटयं । अच्छियं तिंदुयं बिल्लं उच्छुखंडचसिंबति ।। अप्पे सिया मो अणिजाए बहुउज्झियधम्मियं । दिति पडिआइक्खे न मे कप्पइ तारिस ॥
अर्थात-बहुत्त हड्डियोंवाला मांस, बहुत कांटे वाला मांसा तेंदुक, गन्ना ( ईख ) बेल, शाल्मलि, ऐसे पदार्थ जिनमें खानेका अंश थोडा और छोडनेका अधिक तो उन्हे “ मुझे नहीं चाहिये " ऐसा कहकर साधु न ले।
यह जानकर औरभी अधिक दुख होता है कि श्वेतांबर तथ:
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