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विचारों से
अधर्म में
यद्यपि मनुष्य अपने अंतरंग ( मनके) अच्छे बुरे धर्म और अधर्म करता है परंतु बाहरकी सामग्री भी उस धर्म बहुत भारी सहायता करती है क्योंकि बाहरकी अच्छी बुरी वस्तुओंको देखकर उनका संसर्ग पाकर मनुष्यका मन अच्छे बुरे विचारों में फस जाता है । इसी कारण जो मनुष्य संसारके कामोंमें उदासीन हो जाते हैं वे गृहस्थ आश्रमको छोडकर साधु बन जाते हैं और किसी एकांत स्थान में रहने लगते हैं ।
साधु ( मुनि) घर में रहना इसीलिये छोड देते हैं कि वहां पर उनके मन में मोह, मान, क्रोध, काम, लोभ आदि बुरे विचार उत्पन्न करने वाले पदार्थ हैं । पुत्र, स्त्री, नौकर चाकर, धन, मकान, दुकान आदि हैं तो सब बाहरकी चीजें, किन्तु उन्हींके संबन्ध से मनुष्य कें मानसिक विचार मलिन होते रहते हैं ।
इस कारण मुनि दीक्षा लेते समय अन्य पापके समान परिग्रह पापका भी त्याग किया करते हैं । परिग्रह का अर्थ - घन, वस्त्र, मकान, पुत्र, स्त्री आदि बाहरी पदार्थ और क्रोध, मान, लोभ, कपट आदि मैले मानसिक विचार हैं । इसलिये मुनि जिस प्रकार घर, परिवार इत्यादि बाहर की वस्तुओंको छोडते हैं उसी तरह उन सब चीजोंके साथ उत्पन्न होनेवाले प्रेम और द्वेष भावको भी छोड़ देते हैं। क्योंकि मन निर्मल करनेकेलिये राग, द्वेष, मोह आदि छोडना आवश्यक है और रागद्वेष छोडने के लिये धन, धान्य, घर वस्त्र आदि बाहरके पदार्थ छोडना आवश्यक है । ऐसा किये बिना मुनि परिग्रहत्याग महाव्रतको नहीं पा सकते ।
मुनिदीक्षा लेकर यदि कपड़ोंका त्याग न किया जाय तो परिग्रहत्याग महाव्रत नहीं पल सकता | क्योंकि कपडे रखनेसे मुनिके मन में दो तरह का मोह बना रहता है । एक तो शरीरका और दूसरा उन कपड़ों का
का ।
मुनि शरीरको विनाशीक पुद्गलरूप जान कर उससे मोहभाव छोडते हैं इसी कारण अनेक तप करते हुए तथा २२ परीवह सहते हुए
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