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वस्तु परिग्रहरूप नहीं हो सकती । उन रेशमी वस्त्रोंके बननेका कुछ भाग साधुको लेना होगा । इसके कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं ।
साधु अपने पहनने के लिये गृहस्थसे मांगते समय अपनी मानसिक इच्छाको किस प्रकार गृहस्थके सामने प्रगट करे ? यह बात आचारांग सुत्रके इसी १४ वें अध्यायके पहले उद्देश में २८४ तथा २९५ पृष्ठ पर यों लिखी है
65 तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा से मिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय वत्थं जाएज्जा, तंजहा, जंगिय वा, भंगियं वा, सायं वा, पोतयं वा, खेमियं वा, तूलकडं वा, तप्यगारं वत्थं सयं वा णं जाएजा परो वा णं देज्जा फासूयं एसणीयं लाभे संति पडिगाहेजा । पढमा पडिमा । ८११ । "
गु० टी० - त्यां पहली प्रतिज्ञा या प्रमाणे छे मुनिं अथवा आर्याए उनना, रेशमनां, शणनां, पाननां, कपाशनों के तुलनां कपडामानुं अमुक जातनुंज कपडुं लेवानी धारणा करवी, अने तेनुं कपडुं पोते मागतां अथवा गृहस्थे आपवां माडतां निर्दोष होय तो ग्रहण करवुं । ए पहेली प्रतिज्ञा । ८११ ।
यानी — मुनि या आर्यिका ऊन, रेशम, कोशा, कपास या आककी रुई ( नकली रेशम ) के बने हुए कपडों में से किसी एक तरहका कपडा पहनने का विचार निश्चित करले । फिर वह कपडा या तो स्वयं गृहस्थ से मांग ले या गृहस्थ स्वयं दे तो निर्दोष जानकर ले लेवे । यह वस्त्र लेने की पहली प्रतिज्ञा है ।
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दूसरी प्रतिज्ञा इस प्रकार है-
" अहावरा दोचा पडिमा सेभिक्खूवा भिक्खुणी वा पेहाए वत्थं जाएज्जा, तंजहा, गाहावती वा, जाव, कम्मबरी वा, से पुव्वामेव आढोएच्चा 46 आउसोति " वा " भगिणीतिवा " " दाहिसि मे एतो मणतरं वत्थं १ " तहप्पयारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा, जाव फासुय एसणीयं लाभे संते पडिगाहेज्जा दोच्चा पडिमा | ८१२ । ”
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