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निमित्तसे वह उपर्युक्त कथाकी घटनाके अनुसार संकल्पी अथवा विरोधी हिंसा भी कर सकते हैं।
पाणिपात्र या काष्ठपात्र. अब यहांपर यह बात विचारनेके लिये सामने आई है कि निग्रंथ साधु जो कि समस्त परिग्रहका त्याग कर चुके हैं पाणिपात्र यानी हाथमें भोजन करनेवाले हों अथवा काष्ठपात्र यानी लकडी मिट्टी या तुंबाके वर्तन अपने साथ रखनेवाले हों ?
इस विषयमें दिसम्बर सम्प्रदायका अभिप्राय तो यह है कि स्थविरकल्पी हो या जिनकल्पी मुनि हो, अन्य कोई पात्र धारण न करे; हाथमें ही भोजन करे | किन्तु श्वेताम्बर और स्थानकवासी संप्रदायका इस विषयमें यह कहना है कि उत्कृष्ट जिन ल्पी साधु तो पाणिपात्र यानी हाथमें भोजन करनेवालाही हो अन्य कोई यात्र धारण न करे। किन्तु स्थावरकल्पी साधु भोजन करनेके लिये पात्र और उस पात्रको रखने तथा बांधनेके कपडे अपने पास रक्खे । ____ यहांवर इतना समझ लेना चाहिये कि दिगम्बर सम्प्रदायके अभिमतको श्वेतांबर तथा स्थानकवासी सम्प्रदाय सबसे उत्कृष्ट रूप मानकर स्वीकार करते हैं, जैसा कि उनके प्रवचनसारोद्धार ग्रंथकी ५०० वीं गाथामें कहा है
जिणकप्पिा वि दुविहा पाणीपाया पडिग्गहराय ।
यानी-जिनकल्पी साधु भी दो प्रकार के हैं एक पाणिपात्र और दूसरे पतद्गृहधर ।
किंतु विचार इतना और भी करना है कि क्या अन्य महाव्रतधारी जैन मुनि भी पात्र ग्रहण करें ? इस प्रश्नपर विचार करते समय जब सर्व परिग्रहत्यागी साधुके स्वरूपकी ओर देखा जाय तो कहना होगा कि पात्र अपने पास रखना साधुको आना परिपत्य ग मत मलिन करना है। क्योंकि साधके लिये पात्र खना दो तरहसे परग्रहका ढोष प्रष्ट करता है एक तो इस तरह कि यदि पात्र परग्रहरूप नहीं है तो उत्कृष्ट
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