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मिट्टी आदिके वर्तनों में से अमुक वर्तन क्या मुझे देगी ? ऐसे मांगने पर या स्वयं गृहस्थके देने पर ग्रहण करे | यह दूसरी प्रतिज्ञा है ।
इस दूसरी प्रतिज्ञा से पात्र लेने पर साधुके लोभ, संकोच, दीनता प्रगट होती है । गृहस्थोंके घर वर्तन देखकर मन संकोच कर उससे वर्तन मांगना, यदि गृहस्थने मांगे अनुसार पात्र दे दिये तो ठीक; नहीं तो वर्तन न मिलनेपर खेद खिन्न या क्रोधी होना या मिल जानेपर हर्षित होना आदि बातें साधुके ऊंचे पदको नीचे करने वाली हैं तथा मनको मलिन करने वाली हैं और दीनता प्रगट करने वाली हैं । तीसरी प्रतिज्ञा यह है
" से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पादं जाणेज्जा सगतियं वा वैजयंतियं वा तहप्पगारं पायें सयं वा जाव पडिगाहेज्ना । तच्चा पडिमा । "
यानी - मुनि या आर्यिका गृहस्थ के वर्ते हुए ( काम लिये हुए ) या वर्ते जाने वाले ( काममें आते हुए ) दो तीन वर्तनों में से एक पात्र स्वयं मांगे । उसके मांगनेपर या स्वयं गृहस्थके देने पर - पात्र ग्रहण करे |
इस तीसरी प्रतिज्ञासे पात्र लेनेवाले साधुके दीनता तथा मोहबुद्धि और भी अधिक बढी हुई समझनी चाहिये क्योंकि दूसरेका काममें लिया हुआ वर्तन वह ही ग्रहण करता है जो अत्यंत लोभी या दीन होता है । मुनिको यदि लोभी या अतिदीन माना जाय तो वे महाव्रतधारी साधु नहीं हो सकते क्योंकि लोभ अंतरंग परिग्रह है । और यदि वे पांच महाव्रतधारी साधु 1 हैं तो ऐसी दीनता तथा लोभकषाय नहीं दिखला सकते । '
चौथी प्रतिज्ञा यह है-
" से भिक्खूवा भिक्खुणीवा उज्झियत्रम्मियं पादं जाएज्जा जं चणे वहवे समणमाहणा जाव वणीमगा णाव कखंति, तप्पगारं पादं सयं बाण जाव पढिगाहेज्जा । चउत्था पढिमा । ८५० । १
भावार्थ-मुनि अथवा आर्यिका ऐसा पात्र गृहस्थसे स्वयं मांगकर लेवे जो कि फेंक देने योग्य हो और जिसको कोई भिक्षुक ( भजैन
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