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जिनकल्पी मुनि उन पात्रोंको छोडकर पाणिपात्र ( हाथमें भोजन करनेवाले ) क्यों होते हैं ? पात्र परिग्रहरूप वस्तु है इसी कारण वे उनका त्याग कर देते हैं । दुसरे-पात्र रखनेसे कोई महाव्रत, संयम
आदिका उपकार नहीं होता इस कारण वह एक मोह पैदा करनेवाली वस्तु है। उसके ग्रहण करने, अपने पास रखने तथा उसके रक्षा करने में मोह भौजुद रहता है । पात्र ग्रहण करनेमें साधुके मोह भाव होता है यह बात उसकी ४ प्रतिज्ञाओं से भी सिद्ध होती है।
देखिये आचारांग सूत्रके १५ वें अध्यायके पहले उद्देशमें ३०९ -३१० चे पृष्ठपर लिखा है
" से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उहिसिय उद्दिसिय पायं जाएज्जा तंजहा, लाउयपायं वा, दारुपाय वा, मदियापायं वा तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाएजा, जाव पडिगाहेजा । पढमा पडिमा । ८४७ ।
अर्थात-साध या आर्यिका किसी एक प्रकारका पात्र अपने लिये निश्चित करके तुंबी, लकडी या मिट्टी आदि के बने हुए पात्रों में से अपना निश्चित प्रकारका पात्र गृहस्थसे स्वयं मांगे या गृहस्थ स्वयं देवे तो ले लेवे । यह पहली प्रतिज्ञा है। ____ इस प्रसिज्ञासे सिद्ध होता है कि साधुके हृदयमें पात्रके लिये ममत्व भाव है जिसके कारण उसे गृहस्थसे स्वयं याचना करनी पड़ती
दूसरी प्रतिज्ञा यों है" से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए पेहाए पायं जाएज्जा, तंजहा, गाहावई वा, जाव कम्मकरी वा, से पुवामेव आलोएजा " आउसोत्तिवा, भहणीतिवा, दाहिसि मे एतो अण्णयरं पादं, तंजहा लाउयपादं वा " जाव तहप्पगारं पायं सयं वा गं जाएज्जा परो वा से देजा जाब पडिगाहेजा। दोच्चा पडिमा । ८५८ । ____ अर्थात्-मुनि या साध्वी अपने निश्चय किये हुए ( लकडी आदि जातिके ) पात्रको गृहस्थके घरमें देख कर गृहस्थके घर वालोंसे कहे कि " हे भायुष्मन् ! या हे बहिन ! तुंगीपात्र, काठका वर्तन या
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