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साधु ) ब्राम्हण अथवा घरघर भीख मांगनेवाले भिखारी भी नहीं लेना चाहें । अथवा ऐसे वर्तनको गृहस्थ स्वयं देवे तो वह ले लेवे ।
इस चौथी प्रतिज्ञासे पात्र लेनेवाले साधुके तो महादीनता प्रगट होती है क्योंकि भिखारीके भी न लेने योग्य पात्रको मांगकर लेनेवाला पुरुष भिखारी से भी बढकर दीन दरिद्री होता है । क्या महाव्रतधारी, सिंह वृत्तिसे चलने वाले मुनि ऐसे दीन होते हैं ?
इस प्रकार पात्र ग्रहण करनेमें साधुके दीनता, मोह, परिग्रह आदि दोष आते हैं । प्रवचनसारोद्धार के १४१ वें पृष्ठपर ५२४ वीं गाथा में पात्र रखनेसे जो गुण बतलाये हैं कि
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छक्कायरक्खणठ्ठाळे पायग्गहण जिणेहि पण्णत्तं ।
जे य गुणा सभोए हवंति ते पायगहणेवि ।। २५४ ॥ यानी - पात्र रखनेसे स धुके छह कायके जीवों की रक्षा होती हैं तथा जो गुण संभोग में बतलाये गये हैं वे गुण पात्र रखने में भी हैं । ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ।
यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि पात्र न रखकर हाथमें भोजन करने वाले मुनके किस प्रकारसे छह काय के जीवोंकी हिंसा होती है ? तथा आपके ( श्वेताम्बरीय ) उत्कृष्ट जिनकल्पी साधु जो पात्र न रखकर हाथमें भोजन करते हैं सो क्या वे भी छह कायके जीवोंका घात करते हैं ? कैसा उपहास है - जैसे तैसे करके पात्रसे ही छहकायिक जीवोंकी रक्षा बतलाई जाती हैं । पात्र के द्वारा उठाने, रखने, धोने, पोंछने, बचा हुआ भोजन फेंकने आदि क्रियाओंसे जो जीवों का घात होता है उसका नाम भी नहीं ।
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अब हम इस विषयको अधिक न वढाकर पात्र रखनसे साधुको जो जो दोष प्राप्त होते हैं उनको संक्षेपसे बतलाते हैं । पात्र रखने में साधुको निम्न लिखित दोष लगते हैं ।
१ - पात्र ( वर्तन ) पौद्ध लेक पर वस्तु है जिससे कि संयम का कुछ उपकार नहीं होता है। क्योंकि भोजन हाथोंमें लेकर खाया जा सकता है, अतः पार्टीको ग्रहण करनेमें परिग्रह का दोष लगता है !
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