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२ - पात्र अपने मनके अनुसार मिल जानेपर मुनि को हर्ष तथा पात्रसे प्रेम हो सकता है तथा इच्छानुसार न मिलनेपर दुःख हो सकता है । इस कारण पात्र मुनिके राग द्वेष उत्पन्न करनेका कारण है ।
३ - पात्र मांगने में मुनिके आत्मामें दीनता का प्रादुर्भाव होता है । ४ पात्र मिल जानेपर साधुको उसकी रक्षा करनेमें सावधानी रखनी पडती है कि कहीं कोई चोर न चुरा ले जावे ।
५ पात्र टूट फूट जानेपर या चोरी चले जानेपर साधुके मनमें दुख हो सकता है ।
६ पात्र रखनेमे उसके साथ सूती तथा ऊनी तीन कपडे और भी रखने पडते हैं । जिससे परिग्रह और भी बढता है ।
७ पात्रको साफ करने, धोने, पोंछने, सुखाने आदिमें सूक्ष्म त्रस जीवोंका घात होता है । तथा आरंभका दोष आता है ।
८ पात्रमें भोजन ले आने पर ऊनोदर । भूखसे कम खाना ) तप यथार्थ रूपसे नहीं पल सकता । यदि तप पालने के लिये भूख से कम भोजन करके शेष बचे हुए भोजनको साधु कहीं फेक देवें तो वहाँ जीवों की उत्पत्ति तथा धात होगा ।
९ अन्न पानी के सम्बन्धसे काठके पात्र में सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसे वर्तनको रगड रगड कर धोनेपर उनका घात हो सकता है ।
- एक ही पात्र में अनेक प्रकारके अन्न, दाल, दूध, दही, नमक, खांड आदिके बने हुए सुखे, गीले पदार्थ मिलानेपर द्विदल आदि हो सकता है । जिसके कि खानेमें हिंसाका दोष लगता है ।
११ - पात्रोंको कोई डाकू, भील, चोर, लूट, छीन, या चुरा न लेवे इस भय से साधु पात्रोंको लेकर वन, पर्वत, श्मशान आदि एकांत स्थानों में निर्भयरूपसे आ जा नहीं सकते हैं और न निराकुल होकर ध्यान कर सकते हैं ।
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