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इत्यादि अनेक दोष साधुओंको पात्र रखनेमें आते हैं । इस कारण महाव्रतधारी मुनिको पात्र धारण करना ठीक नहीं है, दोषजनक है । कमंडलु तो इस कारण रखना योग्य है कि उसमें अचित्त जल रखकर उस जलसे पेशाब टट्टी करने के पीछे हाथ पैर आदि अशुद्ध अंग धोने पडते हैं । किंतु भोजन पात्र रखनेके लिये तो वैसी कोई विवशता ( लाचारी ) नहीं है । निर्दोष भोजन तो साधु गृहस्थके घरपर हाथों में खा सकते हैं जैसा कि उत्कृष्ट जिनकल्पी मुनि किया करते हैं ।
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इस कारण साधुको अपने पास पात्र रखना भी अपना मुनिचारित्र विगाडना है । यानी पात्र रखने पर साधुके मूलगुण भी नहीं पालन किये जा सकते । इसलिये डंड ( लाठी ) धारणके समान पात्र धारण भी व्यर्थ तथा हानिजनक है ।
क्या साधु अपने पास बिछौना रक्खे ?
ra यहां यह प्रश्न सामने आया है कि क्या महाव्रतधारी जैन साधु संस्तारक ( बिछौना, विस्तर) सोनेके लिये अपने पास रक्खे ? इसका उत्तर दिगम्बर सम्प्रदायके आचारग्रंथ तो महाव्रतधारी मुनि को रंचमात्र भी वस्त्र न रखनेका आदेश देते हैं फिर संस्तारक तो जरा दूरकी बात रही । किन्तु श्वेताम्बरीय ग्रंथ तथा स्थानकवासी शास्त्र मुनियोंको संस्तारक ( संथारा. विछौना या बिस्तर ) ही नहीं किन्तु उसके ऊपर विछानेके लिये एक उत्तर पट यानी मलमल आदि कोमल पढेकी चादर भी रखने की आज्ञा देते हैं ।
आचारांग सूत्र के ११ वें अध्यायके ६९२ वें सूत्र से लेकर ७१२ वें सूतक साधुको अपने पास संस्तारक (सोनेके लिये बिछौना) रखनेका वर्णन किया है जिसमें वस्त्र तथा पात्र ग्रहण के समान इस संस्तारक लेनेके लिये भी ४ प्रतिज्ञाओंको बतलाया है जिनको लिखना व्यर्थ समझ हम छोड देते हैं । उनका मतलब केवल इतना ही है कि साधु गृहस्थके घर से मांगकर अपने सोनेके बिछौना ले आवे । प्रवचनसारोद्धारके १४० वें पृष्ठपर यों लिखा है
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