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श्वेताम्बरीय ग्रंथोंके उपर्युक्त उल्लेख इस बातको सिद्ध करते हैं कि महात्रतधारी साधु वस्त्ररहित नग्न ही होते हैं। उनके पास नाममात्र भी वस्त्र नहीं होता है । क्योंकि यदि उनके पास कोई वस्त्र हो तो फिर उनके अचेल परीषद नहीं बन सकती । नाग्न्य परीषद के विजेता उनको नहीं कहा जा सकता ।
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इस कारण श्वेताम्बर आम्नायका यह पक्ष स्वयमेव धराशायी हो जाता है कि " महाव्रती साधु चादर, लंगोट, विस्तर, कंबल आदि वस्त्रोंके धारक भी होते हैं । "
कतिपय श्वेताम्बरीय ग्रंथकार अचेल का अर्थ ईषत् चेल यानी थोडे कपडे तथा कुत्सित चेल अर्थात बुरे कपडे ऐसा करते हैं । सो उनका यह कहना भी बहुत निर्बल है क्योंकि प्रथम तो अचेल परिषह का दूसरा नाम तत्वार्थाधिगम सूत्रमें ' नाग्न्य' यानी नग्नता आया है उसका स्पष्ट अर्थ सर्वथा वस्त्ररहित नग्न रहना होता है । उस नाग्न्य शब्दसे ' थोडे या बुरे कपडे ' ऐसा अर्थ नहीं निकल सकता | दूसरे :- थोडे या बुरे कपडोंका कोई निश्चित अर्थ भी नहीं बैठता क्योंकि शीत और गर्भीकी बाधा मिटाने योग्य समस्त कपडे रहने पर भी साधुओं को थोडे वस्त्रधारक कहकर अचेल समझ लें तो समझ में नहीं आता कि सचेल का अर्थ क्या होगा !
इस कारण सचेलका अर्थ जैसे ' वस्त्रधारी ' है उसी प्रकार ' अचेल ' का अर्थ वस्त्ररहित नग्न है ।
अतः सिद्ध हुआ कि श्वेताम्बरीय ग्रंथकार भी साधुका वास्त विक स्वरूप नग्न ही मानते थे अन्यथा वे इस परीषहको न लिखते । नग्न मुनिकी वीतरागता.
कुछ भोले भाले भाई एक यह आक्षेप प्रगट करते हैं - भोले ही नहीं किन्तु तत्व मिर्णयप्रासाद आदि ग्रंथोंके बनानेवाले बडे भारी आचार्य स्वर्गीय श्री आत्मारामजी भी इस आक्षेपको लिखते नहीं चूके हैं कि " मुनि यदि कपडा न पहने तो उनका दर्शन करने वाली स्त्रियोंके भाव उनका नम्र शरीर देख बिघड जावेंगे । "
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