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तीसरे - लाठी रखनेसे साधुके मनमें भी दूसरे जीवोंको और नहीं तो कमसे कम अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले जीवको तो अवश्य ही मारने पीटने के भाव उत्पन्न हो जाते हैं । जैसे तलवार, छुरी, बंदूक हाथ में लेकर मनुष्यके भाव दूसरे जीवका बध या उसको घायल क'ने विचार हो जाते हैं । तलवार बंदूक आदि लोहे के हथियार हैं और लाठी लडका बना हुआ हथियार है। अंतर केवल इतना ही है ।
चौथे -- लाठी वडी मनुष्य रखता है जिसको परम अहिंसाघर्म से बढकर अपना शरीर, प्राण प्यारे ( प्रिय ) होते हैं और इसी कारण वह अपने शरीरकी रक्षा के लिए, किसी भय से बचने के लिए अपने पास लाठी रखता है । किंतु सब की हिमाके तथा अंतरंग बहिरंग परिग्रह के सर्वथा त्यागी मुनिके हृदय में न तो अपने शरीरसे राग होता है जिससे कि उनके हृदयमें किसी से डर लगता रहे और उस डरके मिटानेके लिये वे अपने पास लाठी रक्खें । तथा न वे लाठी से दूसरे जीवको भय दिखलाकर अपने शरीरको ही बचाना चाहते हैं । क्योंकि ऐसा मौटा प्रमाद गृहस्थीके ही होता है ।
पांचवें यदि साधु लाठीके सहारे ही अपनी रक्षा करने लगे तो उनमें और अन्य गृहस्थोंमें या अन्य अजैन साधुओंमें क्या अंतर रहा ? छठे -- शरीर की रक्षा के साधन लाठीके समान जुता, टोपी, छाता, आदि और भी अनेक बस्तुएं हैं उनमें से भी कुछ चीजें लाठी के समान साधुओंको रखना चाहिये ।
सातवें - लाठी से मोह होजानेके कारण साधुको लाठी अपने पास रखने से परिग्रहका भी दोष लगता है। शरीरकी रक्षाका कारण मानकर लाठी प्रत्येक समय अपने पास रखना, विना मोहके बनता नहीं है
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आठवें - लाठी यदि संयम साधनका ही कारण हो तो श्वेताम्बरों के सर्वोत्कृष्ट जनकल्पी साधु ( जिनके पास कि रंचमात्र भी कोई वस्तु नहीं होती, नग्न दिगम्बर होते हैं ) लाठी अपने पास क्यों नहीं रखते ? नवमे लाठी बिना यदि साधुचर्या में कुछ हानि पहुंचती तो श्री महावीर आदि तीर्थकर भी लाठी अवश्य रखते किन्तु उन्होंने लाठी अपने साथ नहीं रक्खी सो क्यों ?
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