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११ - वस्त्र पहनते रहने से शरीर सुखिया हो जाता है और शीत, उष्ण, दंशमशक आदि परीषद सहनेका अवसर साधुको नहीं मिल पाता है ।
१२ कपडे पहनते हुए साधुके अटल ब्रह्मचर्य तथा वीतराग भा - ant परीक्षा या निर्णय भी नहीं हो सकता क्योंकि स्पर्शन इंद्रिय का विकार मूत्रेन्द्रिय पर प्रगट होता है जो कि वस्त्रधारी साधुके कपडों में छिपी रहती है 1
१३ कपडा मांगने से साधुके मनमें दीनता तथा संकोच प्रगट होता है और जिस गृहस्थसे वस्त्र मांगा जावे उस गृहस्थपर दबाव पडता है ।
१४ अपने मनके अनुसार कपडे मिल जाने पर साधुके मन में हर्ष होता है और मनके अनुसार कपडे न मिलने पर साधुके हृदयमें दुख होता है ।
१५ जो कपडे मिल गये उनके पहनने, रखने, उठाने, धोने, सुखाने, फाडने, सीने, जोडने फेंकने, रक्षा करने, शोधने, निचोडने आदि कार्योंमें मुनि को चिन्ता, असंयम, भय, आरंभ आदि करने पडते हैं ।
इस प्रकार साधुके कपड़ा रखने पर परिग्रहत्याग महाव्रत तथा संयम धर्म और अहिंसा महाव्रत एवं लोभकषायपर विजय नहीं मिल पाती है अतः वास्तवमें महाव्रतधारी मुनि बस्त्रत्यागी ही हो सकता है ।
अचेल - परिषह
महाव्रतधारी साधुको कर्मनिर्जराके लिये जो कष्ट सहने पड़ते हैं उनको परीषह कहते हैं । वे परीषद २२ बाईस बतलाई हैं। साधुओंके लिये बाईस परिषद सहन करना जिस प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय में बतलाया है उसी प्रकार श्वेताम्बर में भी बतलाया गया है ।
उन बाईस परीषह में अचेल या नाग्न्य ( नग्नता ) बतलाई गई है जिसका अर्थ है नग्न यानी वस्त्ररहित रहनेसे साधुको कंजा आदि जो कुछ भी कष्ट आवे उसको वह शान्तिपूर्वक धैर्य से सहन करे ।
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