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को दूध पिलानेके लिये गाय रख दी और गायको खाने के लिये तीन बीघा खेत भी देदिया जिसकी घास चरकर गाय · रहने लगी। किन्तु खेत का राजकर ( मालगुजारी ) चुकानेका साधुजीसे कुछ प्रबन्ध न हो सका । इस कारण खेतकी मालगुजारी लेने वाले राजकर्मचारी (सिपाही) साधुजीको पकडकर राजाके पास ले गये।
राजाने साधुसे पूछा कि महात्माजी ! साधु बनकर तुमने अपने पीछे यह क्या झगडा लगाया जिससे कि आज आपको यहां मेरी कच. हरी ( न्यायालय ) में आना पडा । साधुने अपनी सारी पुरानी कथा राजाके सामने कह सुनाई और अंतमें अपना एक मात्र कपडा लंगोटीको उतारकर फाडते हुए कहा कि हे राजन् ! " यदि मेरे पास यह लंगोटी न होती तो मैं इतने झगडे में न फसता "।
यह यद्यपि है तो एक कथा, किन्तु इस कथासे भी अपने पास वस्त्र रखनेसे जो अनेक संकट आ उपस्थित होते हैं उनपर अच्छा प्रकाश पडता है। __आचारांगसूत्र के छठे अध्यायके तीसरे उद्देशका ३६० वां सूत्र यह बात खुले रूपसे कहता है कि साधुको वस्त्र रखनेसे बढे कष्ट और चिन्ता होती है तथा वस्त्र छोड देनेसे शांति, निराकुलता, संतोष होता है । अब हम यहां इस विषयमें प्रवचनसारोद्धार आदि श्वेताम्बरीय मान्य ग्रंथोंका विस्तारभयसे प्रमाण न देते हुए यह लिखते हैं कि साधुको
वस्त्र पहननेसे क्या क्या दुख - असंयम होता है
१-कपडे पहननेपर अपने [ साधुके ] शरीरके पसीने तथा मैलसे कपड़ों में जं आदि पैदा हो जाते हैं । कपडोंसे बाहर निकाल फैकनेमें या कपडोंको धोंनेमें अथवा कपडा अलग रखनेमें उन जीवोंका पात होगा।
२-सफेद कपडा ७-८ दिनमें मैला होजाता है उस मैले कपडे को स्वयं धोनेमें या अन्य मनुष्य द्वारा धुलानेमें साधुको गृहस्थके समान आरम्भका दोष लगता है।
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