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णाबकखंति । तहप्यगारं उज्झियधम्मियं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा फासुयं जाव पडिगाहेज्जा । चउत्था पडिमा | ८१४ | "" टी. - चोथी प्रतिज्ञा - मुनि अथवा आर्याए फेंकी देवालायक गु. वस्त्र मांगवा एटले के जे वस्त्रो बीजा कोइ पण श्रमण, ब्राह्मण, मुसाफर, शंक, के भिकारी चाहे नहीं तेवां पोती मागी लेवांया गृहस्थे पोतानी मेले आपतां निर्दोष जणातां ग्रहण करवां । ए चोथी प्रतिज्ञा । ९१४ ।
यानी—मुनि या आर्यिका गृहस्थके ऐसे फेंक देने योग्य कपडको गृहस्थसे मांगे जिसको कि कोई भी श्रमण, ब्राह्मण, देश विदेश घूमने फिरने वाला मनुष्य, दीन दरिद्र, भीख मांगने वाला भिखारी मनुष्य भी नहीं लेना चाहे । ऐसे कपडे को साधु, साध्वी या तो गृहस्थसे स्वयं मांग ले या गृहस्थ उसको स्वयं देने लगे तो निर्दोष जानकर लेले | आचारांगसूत्र ( जो कि श्वेतांबर मुनि आचारका एक प्रधान माननीय ग्रंथ है ) ने साधु साध्वीको इन चार प्रतिज्ञाओं से कपडा लेनेका आदेश दिया है | विचारनेकी बात है कि इन चार प्रतिज्ञाओंसे साधु साध्वीको परिग्रह तथा लोभ कषायका और साथही दीनताका कितना भारी दूषण आता है | देखिये पहली प्रतिज्ञामें रेशमी तथा आककी रुई के चमकीले बहुमूल्यवाले वस्त्र जिसको कि सिवाय धनवान मनुष्य के कोई पहन भी नहीं सकता है, गृहस्थसे मांगलेनेकी आज्ञा दी है । " किसीसे कोई वस्तु अपने लिये मांगना " आशा या लोभके शिवाय बन नहीं सकता और फिर वह मांगा जानेवाला पदार्थ सुंदर ( खूबसूरत ) बहुमूल्य वाली वस्तु हो । इस कारण पहली प्रतिज्ञासे वस्त्र लेनेवाले साधुके परिग्रह रखना, लोभ आशा दिखलाना तथा विलासिताका भाव अच्छी तरह सिद्ध होता है ।
दूसरी प्रतिज्ञासे वस्त्र लेनेवाले मुनिके भी तीव्र लोभ प्रगट होता है साथ ही दूसरेका हृदय दुखाने या उसको दबानेका भी दूषण लगता है क्योंकि मुनि गृहस्थसे उसके कपडे देखकर उनमें से कोई कपडा अपने पहनने के लिए मांगे तो उस कपडे में मोह और
हृदय में तीन
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