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धर्मसाधनके लिये शरीरको कष्ट देते हैं। उसी शरीरको यदि कपडों से ढक कर सुख पहुंचाया जाय तो मुनिके भी गृहस्थ मनुष्योंके समान शरीर के साथ मोह अवश्य मानना पडेगा । क्योंकि कपडोंसे शरीर को शर्दी, गर्मी की परिषह नहीं मिल पाती है और परिषह न सहने से शरीरमें मोह उत्पन्न होता हैं ।
दुसरे मुनि जिन वस्त्रोंको पेहनें ओढें उन कपडोंमे भी उनको मोह (प्रेमभाव ) हो जाता है क्योंकि उन कपड़ों में मोहभाव पैदा हुए बिना वे उन्हें ओही किस तरह ? तथा कंबल चादर आदि ५-७ कपडे जिनको कि श्वेताम्बर, स्थानकवासी साधु अपने पास रखते हैं कमसे कम १५-२० रुपयेके तो होते ही हैं। इस कारण उन कपडोंको रखनेके कारण कम से कम १५-२० रुपये वाले घनके अधिकारी वे मुनि हुए और इससे वे निर्बंथ न होकर सग्रंथ स्वयभेव हो जायेंगे ।
श्वेतम्बर तथा स्थानकवासी संप्रदाय के रममान्य ग्रंथ आचारांग - सूत्र के १४ वें अध्यायके पहले अध्याय में २९० वें पृष्ठपर मुनियोंके ग्रहण करने योग्य वस्त्रोंके विषयमें यों लिखा है ।
" से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकखेज्जा वत्थं एसिज्जए । सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा, तंजहा, जंगिय वा, भंगियं वा, साणयंवा, पोतयं वा, खोभियंवा तूल कडवा, तप्पगारं वत्थं । ८०२ । "
गु. टीका - मुनि अथवा आर्याए कपडां तपास पूर्वक लेवां | जेवां कि ऊननां, रेशमी शणना, धाननां, कपासनां, अर्कतूनां अने एवी तरेहना बीजी जातोनां ।
अर्थात् मुनि या आर्यिका गृहस्थ के यहांसे अपने लिये कपडा ऊनका, रेशमका, सनका, कोशेका, कपास ( रुई ) का, आककी रुईका अथवा किसी और प्रकारका होवे ।
यदि आचारांग सूत्रकी इस आज्ञा प्रमाण रेशमी कपडा ही अपने पहनने के लिये साधु ले तो उनके वस्त्र साधारण गृहस्थोंसे भी अधिक मूल्यवाले बढिया कपडे होंगे। उन रेशमी वस्त्रों में भी उनको मोह ( प्रेम ) यदि न हो तो समझना चाहिये कि फिर संसार में कोई भी
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