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श्वेताम्बरीय ग्रंथ आचारांगसूत्रमें नम जिनकल्पों साधुको इसी कारण उत्कृष्ट साधु माना गया है कि,
वह वीतरागताका सच्चा आदर्श होता है, समस्त बहिरंग परिमहका त्यागी होता है । बहिरंग परिग्रह चन, मकान, वस्त्र, आभूषण, पुत्र, स्त्री आदि पदार्थ अंतरंग परिग्रहके कारण हैं । मनुष्यके पास जब तक मौजूद रहते हैं तब तक मनुष्य के आत्मामें उनके निमित्तसे मोह उत्पन्न होता रहता है । जिस समय वह उन पदार्थोंका परित्याग करके महाव्रतधारी साधु हो जाता हैं उस समय अंतरंग परिग्रह रागद्वेष आदि परिणाम भी हटने लग जाते हैं। क्योंकि बहिरंग निमित्त नष्ट हो जाने पर उसका नैमित्तिक कार्य राग द्वेष आदि भी नहीं होने पाते ।
मनुव्यके पास जब घरबार विद्यमान है तब तक किसी अच्छे पदार्थ के निमित्तसे इन्द्रियजन्य सुख प्राप्त होने से उस पदार्थ में राग (प्रेम) उत्पन्न होता है और किसी बुरे पदार्थ के संसर्गसे जिसके निमित्तसे कि उसके इंद्रियसुखमें बाधा पडती है उस पदार्थ में द्वेषभाव उत्पन्न होता रहता है । जिस समय उन घर बार संबंधी पदार्थों से संसर्ग छूट जाता है उस समय वह कुत्सित राग द्वेष भी अपने आप दूर हो जाता है ।
यद्यपि यह बात ठीक है कि बाझ पदार्थोंका त्याग मानसिक उदासीता कारण हुआ करता है । किन्तु वहां पर इतना भी अवश्य है कि उस मानसिक उदासीनता या वैराग्यको स्थिर रखने के लिये बाह्य पदाथका त्याग करना ही परम आवश्यक है । विना उन बाहरी गृहसंबन्धी पदार्थों का संसर्ग छोडे वह वैराग्यभाव ठहर नहीं पाता । जैसे गृहस्थ लोग अपने किसी प्रिय बन्धुकी मृत्यु होते देखकर कुछ समय के लिये इनशान भूमिमें वैराग्यकी तरफ झुक जाते हैं । वहाँपर संसारकी rनित्यता, उसकी असारताका अनुभव करने लगते हैं । किन्तु घरमें आकर अपनी, स्त्री, पुत्री, बहिन, माता, पुत्र, दुकान आदिको देखकर उनके संसर्गसे फिर जैसेके तैसे हो जाते हैं । वैराग्य न जाने किधर विदा हो जाता है । इस कारण इस बातका खुलासा अपने आप हो जाता है कि
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