________________
( १०७ )
मेनत्थे, वत्थे जाइस्सामि, सूई जाइस्सा मि, संधिस्सामि, सीविस्सा भि. उक्कसिस्सामि वोक्कसिस्सामि, परिहरिस्सामि, पाडणिस्सामि " । ३६० ।
गुजराती टीका- ने मुनि वस्त्ररहित रहे छे ते मुनिने आवी चिंता नथी रहेती, जेवी के मारां वस्त्र फाटी गयां छे, मारे बीजुं नवं वस्त्र लावQ छे, सूत्र लावq छे, सोय लावq छे, तथा वस्त्र साधुवं छे, लीवबुं छे, वधारदुं छे, तोडq छे, पहे.q छे के विटालवु छ ।
यानी-जो मुनि वस्त्ररहित ( दिगम्बर-नग्न ) होते हैं उनको यह चिन्ता नहीं रहती कि मेरा कपडा फट गया है, मुझे दुसरा नया कपडा चाहिये, कपडा सीनके लिये सुई, धागा ( सूत ) चाहिये । तथा यह चिन्ता भी नहीं रहती कि मुझे कपडा रखना है, फटा हुआ अपना कपडा सीना है, जोडना है, फाडना है, पहनना है या मैला कपडा धोना है।
आचारांग सूत्रका यह ऊपर लिखा वाक्य दिगम्बर मुनि के मानसिक पवित्रताकी कैसे चुने हुए शब्दों में प्रशंसा करता है।
इसी आचारांग सूत्रके ८ वें अध्याय ५ ३ उद्देशमें यों लिखा है
" अह पुण एवं जाणेजा, उवकंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहा परिजुन्नाई वत्थाई परिठ्ठवेज्जा अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेलए अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसमण्णागए भवति । जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सम्वत्तो सम्बत्ताए सवत्तमेव अभिजाणिया।
गु. टी. हवे जो मुणि एम जाणे के शीयालो व्यतिक्रान्त थयो अने उनालो वेठो छे तो जे वस्त्र परिजीर्ण थया होय ते परठवी देवा, अथवा वखतसर पहेरवां, ओछा करवां एटले के एक वस्त्र राखवू, अने अंते ते पण छोडी अचेल ( वस्त्ररहित ) थइ निश्चिन्त वनवू । आम करतां तप प्राप्त थाय छे । माटे जेम भगवाने भाष्यु छे तेनेज जाणीने जेम बने तेम समपणुंज समजतां रहेवू ।
यानी- जो मुनि ऐसा समझे कि शीतकाल ( जाडा ) चला गया गर्मी आगई तो उसके जो कपडे पुराने हो गये हों उन्हे रख देवें,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com