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जैन साधु पांच पापका पूर्ण तरह से परित्याग करके महात्रतधारी होता है तदनुसार वह अपने पास किसी भी प्रकारका परिग्रह नहीं रख सकता यह बात दिगंम्बर श्वेताबर तथा श्वेताम्बर संप्रदाय के शाखारूप स्थानकवासी सम्प्रदायको भी मान्य है और तदनुसार ही उन तीनो सम्प्रदायोंके आगम ग्रंथ प्रतिपादन करते हैं ।
किन्तु ऐसी मान्यता समानरूपमें होते हुए भी तीनों सम्प्रदाय के साधुओंका वेश भिन्न भिन्न रूपसे है । उनमें से दिगम्बर सम्प्रदाय के महावतधारी साधु अपने शरीरको ढकनेके लिये लेशमात्र भी वस्त्र अपने पास नहीं रखते हैं | उत्पन्न हुए बालकके समान निर्विकार न रूपमें रहते हैं। इसी कारण उनका नाम दिगम्बर यानी दिशारूपी कपडों के पहनने वाले अर्थात नग्न साधु उनके लिये यथार्थ बैठता है ।
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श्वेताम्बर संप्रदाय यद्यपि साधुका सर्वोच्च रूप नम ही मानता है तदनुसार उसके भी सर्वोच्च जिनकल्पी साधु समस्त पात्र आदि पदार्थ त्यागकर नम ही होते हैं । किन्तु इसके साथ ही श्वेताम्बरीय सिद्धान्त ग्रंथ यह भी कहते हैं कि जिस साधुसे नग्न रहकर लजा न जीती जा सके EE ( दिगम्बर सम्प्रदायके ऐलकोंके समान ) लंगोट पहन लेवे, अन्य वस्त्र न रक्खे | जिस साधुसे केवल लंगोट पहनकर शीत गर्मी आदि न सही जा सके वह ( दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्यारह प्रतिमाधारी ऐलक से छोटी श्रेणी के क्षुल्लक समान ) एक चादर और ले लेवे । जो एक चादर I से भी साधुचर्या न पाल सके वह दो चादरें अपने पास रख लेवे । इत्यादि भागे बढाते बढाते ४-६-१०-१२ आदि वस्त्र अपने शरीरका कष्ट इटाने के लिये अपने पास रख ले। जिनमें कंबल बिछौना आदि सम्नि लित हैं। यहां पर इतना और समझ लेना आवश्यक है कि श्वेताम्बरीय साधु अपने पास वस्त्र सूती ही रक्खें या ऊनी, रेशमी आदि सब प्रकार के लेवें इस बात का स्पष्ट एक निर्णय हमने किसी श्वेताम्बरीय शास्त्रमें नहीं देखा | आचारांगसूत्र के सूत्रोंसे यही खुलासा मिलता है कि साधु कोई भी तरहका वस्त्र ग्रहण कर सकता है ।
वस्त्रोंके सिवाय श्वेताम्बरीय साधु भोजन पान गृहस्थके घरसे ला
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