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कोई अवधिज्ञान, लब्ध्यात्मक मति, श्रुत आदि सरीखा नहीं है जो किसी शुभ क्रियाके करने से क्षयोपशम हो जानेपर उत्पन्न हो जावे । केवलज्ञान उत्पन्न होनेके लिये तो ज्ञानावरण कर्मका समूल क्षय होना चाहिये ।
ज्ञानावरण कर्मका क्षय तब होता है जब कि उसके पहले मोहनीय कर्म समूल नष्ट होजाता है। मोहनीय कर्मके नष्ट करनेके लिए क्षपकश्रेणी चढना होता है क्षपक श्रेणीपर उस समय चहते हैं जब कि शुक्लध्यान प्रारम्भ होता है। इस कारण शुक्लध्यान प्रारम्भ किये विना कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता फिर केवलज्ञान तो दुरकी बात है । प्रतिक्रमण करना, अपने गुरु गुरुणीके पैरों पडना, अपने अपराघोंको क्षमा मांगना आदि कार्य प्रभादसहित कार्य हैं । अत एव वे प्रमत्त नामक छठे गुणस्थान तक ही होते हैं । उसके सातवें आदि प्रमाद रहित गुणस्थानों में ऐसी क्रियाएं नहीं। वहां पर तो केवल अपने आत्माका ध्यान ही ध्यान है ।
इस कारण विना शुक्लध्यान किये केवल क्षमा मांगते मृगावती और चंदनाको केवलज्ञान हो जानेकी बात सर्वथा असत्य और सिद्धांतविरुद्ध है |
इसी प्रकार केवलज्ञानधारिणी मृगावती द्वारा सर्पसे बचाने के लिये चंदनाका हाथ हटाने की जो बात कही गई है वह भी बिलकुल असत्य है | वहां पर दो बाधाएं आती हैं । एक तो केवलज्ञानीको अज्ञानताका दोष ! दूसरे उसको मोह भाव ।
मृगावती केवलज्ञानिनीको अज्ञानता का दोष तो इस कारण आता है कि उसको यह मालूम नहीं हो पाया कि " यह सर्प चंदनाको काटेगा या नहीं; और चंदनाको अभी जाग जानेपर केवलज्ञान उत्पन्न होगा या नहीं.”
यदि सर्वज्ञा मृगावतीको उक्त दोनों बातें ज्ञात होतीं तो वह चंदनाका हाथ क्यों हटाती ? प्राण बचानेका उपाय तो हम तुम सरीखे अल्पज्ञ मनुष्य करते हैं जिनको कि होनेवाले प्राणनाश या प्राण
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