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( १०२ ) यह बात आपके ग्रंथकारोंने भी लिखी है । देखो; तत्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथके ५८६ ३ पृष्ठपर आपके आचार्य आत्मानंद अपरनाम विजयानंद लिखते हैं
" जिनेन्द्रके तो अतिशयके प्रभावसे लिंगादि नहीं दीखते हैं और प्रतिमाके तो अतिशय नहीं है इस वास्ते तिसके लिंगादि दीख पडते हैं।
इस प्रकार श्वे. आचार्य आत्मानंदजी अहंत भगवानकी नग्नताको स्वीकार करते हैं । किंतु साथ ही दिगम्बरीय पक्षके प्रतिवादमें इतना और मिलाते हैं कि अतिशयके कारण अहंत भगवानके लिंगादि दीख नहीं पडते सो उनका इतना लिखना अपने पासका है । क्योंकि ऐसा अतिशय किसी भी श्वेतीवरीय शास्त्र में नहीं बतलाया गया है। स्वयं आत्मारामजीने स्वलिखित जैन तत्वादर्श ग्रंथके तीसरे चौथे पृष्ठपर जो अहंत भगवानके ३४ अतिशय लिखे हैं उनमें भी उन्होंने कोई ऐसा अतिशय नहीं लिखा जिसके कारण अर्हत भगवानके लिंगादि गुप्त रहे आवे; दीखें नहीं। ___ तथा प्रकरणरत्नाकर तीसरे भागके ११७-११८ और ११९ वें पृष्ठपर जो अहंतके ३४ अतिशय लिखे हैं उनमें भी लिंगादि छिपा देनेवाला अतिशय कोई भी नहीं बतलाया है। इस कारण आत्माराम जीने अतिशयके प्रभावसे अईतदेवके लिंगादि छिपानेका अतिशय अपने पास से लिख दिखाया है।
इस कारण सिद्ध हुआ कि अईन्त भगबान नग्न होते हैं और उनके लिंगादि दृष्टिगोचर भी होते हैं ।
यदि कल्पित रूपसे ही " अईन्त भगवानके अतिशय के कारण लिंगादि दृष्टिगोचर नहीं होते हैं । " यह बात मान ली जावे तो वह अतिशय अर्हन्त भगवानकी मूर्तिमें किस प्रकार आ सकता है ? यहापर तो अर्हन्त भगवानका असली स्वरूप नग्न दशा दिखलाकर प्रगट करना चाहिये न कि लंगोटीकी उपाधि उस प्रतिभामें लगाकर अर्हन्त भगवानके असल स्वरूपको छिपा देना चाहिये ।
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