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श्रीमत्पार्श्वजिनेन्द्रस्य महायत्नेन रक्षिता । छत्रत्रयेण संयुक्ता प्रतिमा रत्ननिर्मिता ॥ ११ ॥ तस्या छत्रत्रयस्योच्चैरुपरि प्रस्फुरद्युतिः । मणिर्वैडूर्यनामास्ति बहुमूल्यसमन्वितः || १२ || स तस्करः समालोक्य कुटुम्बं कार्यव्यग्रकम् । अर्द्धरात्रौ समादाय तं मणि निर्गतो गृहात् ।। २४॥ अर्थात् - जिनेन्द्रभक्त सेठके उस चैत्यालय में श्री पार्श्वनाथ भग वान की तीन छत्रोंसे विभूषित रत्नमयी एक प्रतिमा थी । उसके तीन छत्रों के ऊपर चमकदार बहुमूल्य एक वैहूर्य मणि लगी थी । १२ । वह कपटी चोर सेठके परिवारको कार्यमें रुका हुआ देखकर आधी रातके समय उस वैहूर्यमणिको लेकर वहां से चक दिया । २४ ।
पाठक महाशयको मालुम होगया होगा कि वह रत्न छत्रमें लगा था न कि प्रतिमामें । दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रतिमामें उपर से कोई आंख, रत्न आदि वस्तु नहीं लगाई जाती है। क्योंकि ऐसा करनेसे प्रतिमाकी वीतरागता बिगड जाती है । इस कारण आत्मानंदजीने अपना अभिप्राय सिद्ध करनेके लिये जो उक्त कथाका सहारा लिया था वह निराधार है। अत एव असत्य है | द्रव्यसंग्रह के लेखका भी ऐसा ही अभिप्राय है । अन्य नहीं ।
अर्हन्त प्रतिमापर लंगोट भी नहीं होना चाहिये.
अर्हन्त प्रतिमाओंके ऊपर जिस प्रकार वस्त्र आभूषण नहीं होना चाहिये उसी प्रकार उन प्रतिमाओंपर लिंग इन्द्रिय छिपाने वाले लंगोका चिन्ह भी नहीं होना चाहिये क्योंकि लंगोट ( कनोडा ) बना देने से अन्त भगवानका असली स्वरूप प्रगट नहीं होता ।
अर्हन्त दशामें भगवान अन्य वस्त्र आभूषणोंके समान लंगोटी भी नहीं पहने होते क्योंकि वे समस्त अन्य पदार्थों के संसर्गसे रहित पूर्ण वीतराग होते हैं ! तत्काल जन्मे बालकके समान बिलकुल नम होते हैं ।
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