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उस प्रतिमाके शिर पर रत्नजडित तीन सुन्दर छत्र लटकते थे। छत्रम जडे हुए रत्नों से एक वैडूर्य रत्न बहुत सुन्दर एवं अमूल्य था ।
पाटलिपुत्र नगरके राजा यशोध्वज का पुत्र सुवीर था वह कुसंगतिके कारण चोर बन गया था इस कारण अनेक चोरोंने मिलकर उसको अपना सरदार बना लिया था ।
उस सुवीरने जिनेन्द्रभक्त सेठके चैत्यालयका तथा उसमें विद्यमान छत्रमें लगे हुए उस अमूल्य रत्नका समाचार सुना था । इस कारण उसने अपने चोरोंको एकत्र करके सबसे कहा कि कोई वीर जिनेंद्रभक्त सेठके चैत्यालयवाले उस वैडूर्यरत्नको चुराकर ला सकता है क्या ? सूर्यक नामधारी एक चोरने कहा कि मैं इस कामको कर सकता हूं । यह सुनकर सुवीरने उसको वह रत्न लानेके लिये आज्ञा दी।
सूर्यकने मायाजालमें फसानेके लिये क्षुल्लकका वेश बना लिया । क्षुल्लक बनकर वह उस सेठके यहां आया । जिनभक्त सेठने उसको सच्चा क्षुल्लक समझकर भक्तिसे नमस्कार किया और अपने मकानके ऊपर बने हुए उस चैत्यालयमें ठहरा दिया। कपट वेशधारी चोरने वहांपर छत्रमें लगा हुआ वह रत्न देखा जिसको कि लानकी उसने सुवीरसे प्रतिज्ञा की थी। वह बहुत प्रसन्न हुआ।
आधी रातके समय उस कपटवेषधारी चोरने छत्रमेंसे वह वैडूर्यरत्न निकाल लिया और उसको लेकर घरसे बाहर चल दिया। पहरेदारोंने उ. सके पास चमकीला रत्न देखकर पकडना चाहा। उस कपटी चोरको अन्य कोई ठीक उपाय नहीं दीखा इस कारण भागकर वह जिनेन्द्रभक्त सेठकी शरणमें जा पहुंचा। ____ जब सेठने सब घृतांत सुना तब उसने पहरेदारोंसे कहा कि ये बडे तपस्वी हैं चोर नहीं हैं । इस रत्नको ये मेरे कहनेसे लाये थे। यह सुनकर पहरेदार चले गये, सेठने उस कपटी चोरको उपदेश देकर बिदा कर दिया।
इसी कथाको ब्रह्मचारी नेमिदत्तजीने भी अपने आराधनाकथाकोषकी १० वी कथामें ऐसाही लिखा है। कथाके कुछ आवश्यक श्लोक यहां हम उद्धृत करते हैं।
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